सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

मेरे लहू की आग: 'सुरमई धूप में दिन-सा नहीं होने पाता'

मेरे लहू की आग: 'सुरमई धूप में दिन-सा नहीं होने पाता': (110) सुरमई धूप में दिन-सा नहीं होने पाता धुंध वो है कि उजाला नहीं होने पाता देने लगता है कोई ज़हन के दर पर दस्तक नींद में भी तो मैं ...

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

'सुरमई धूप में दिन-सा नहीं होने पाता'

(110)

सुरमई धूप में दिन-सा नहीं होने पाता
धुंध वो है कि उजाला नहीं होने पाता

देने लगता है कोई ज़हन के दर पर दस्तक
नींद में भी तो मैं तनहा नहीं होने पाता

घेर लेती हैं मुझे फिर से अँधेरी रातें
मेरी दुनिया में सवेरा नहीं होने पाता

छीन लेते हैं उसे भी तो अयादत वाले*
दुख का एक पल भी  तो मेरा नहीं होने पाता

सख़्त*-जानी मेरी क्या चीज़ है हैरत-हैरत
चोट खाता हूँ शकिस्ता नहीं होने पाता

लाख चाहा है मगर ये दिले-वहशी दुनिया
तेरे हाथों का खिलौना नहीं होने पाता

1-अयादत वाले*--तीमारदार
2- सख़्त*--कठोरता

'मुझे अपना तो क्या, मेरा पता देता नहीं कोई'

(109)

मुझे अपना तो क्या, मेरा पता देता नहीं कोई
भटकता हूँ घने वन में, सदा देता नहीं कोई

बता ऐ शहरे-नाशुक्राँ*, ये क्या तर्ज़-गदाई* है
तलब करते हैं सब, लेकिन दुआ देता नहीं कोई

यहाँ ज़ालिम जुईफ़ों से सहारे छीन लेते हैं
यहाँ कमज़ोर बाहों को असा* देता नहीं कोई

ख़ुदा जाने कहाँ होंगे वो मुशाफ़िक़* दामनों वाले
तपिश* सहता हूँ, दामन की हवा देता नहीं कोई

मेरे माथे के धब्बों पर ये दुनिया तन्ज़ करती है
मगर हाथों में मेरे आइना देता नहीं कोई

अब अक्सर सोचता हूँ मेरा मर जाना ही बेहतर है
कि बिमारी में ज़िद करके दवा देता नहीं कोई

1- शहरे-नाशुक्राँ*--एहसान न मानने वालों का शहर
2- तर्ज़-गदाई--भीख लेने का ढंग
3- असा*--छड़ी
4- मुशाफ़िक़*--प्रेमपूर्ण
5- तपिश*तपन

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

गोशा-ए-उज़लत* में चुप बैठे हुए अर्सा हुआ

(108)

गोशा-ए-उज़लत* में चुप बैठे हुए अर्सा हुआ
शहरे-हमददाँ!  तुझे देखे हुए अर्सा हुआ

है ख़याले-दोस्त ही बाक़ी, न यादे-वस्ले-दोस्त
हिज़्र की रुत को भी अब भूले हुए अर्सा हुआ

ज़िदंगी में क्या कहूँ, काटे हैं कितने रतजगे
मुख़्तसर ये है कि अब जागे हुए अर्सा हुआ

दिन को तहख़ाने में जलना, शब को बाहर ताक़ में
इस दिए को दोस्तों! जलते हुए अर्सा हुआ

अब ये पत्थर चोट खाकर भी सदा देता नहीं
चुप हुए मुद्दत हुई बिखरे हुए अर्सा हुआ

1- गोशा-ए-उज़लत--एकांत

'सुबह का सूरज उगा, फिर क्या हुआ मत पूछिए'



(107)

सुबह का सूरज उगा, फिर क्या हुआ मत पूछिए
ओस के क़तरों से सागर का पता मत पूछिए

बस सफ़र, पैहम* सफ़र, दायम,* मुसलसल बेक़याम*
चलते रहिए, चलते रहिए, फ़ासला मत पूछिए

ज़िंदगी का रूप यकसाँ*, तजरुबे सबके अलग
इस समर* का भूलकर भी ज़ायक़ा मत पूछिए

मान भी लीजे नमूना ख़स्ता-हाली* को मेरी
मुझसे अपने शहर की आबो-हवा मत पूछिए


क्या ख़बर है कौन किस अंदाज़, किस आलम में हो
दोस्तों से उनके मसकन* का पता मत पूछिए

1-निरंतर
2-सदैव
3-बिना रुके
4-समान,एक जैसा
5-फल
6-दुर्दशा
7-घर

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

क्यों हर तरफ़ धुआँ ही धुआँ है बता मुझे

(106)

क्यों हर तरफ़ धुआँ ही धुआँ है बता मुझे
क्या ये ही शहरे-शोला-रुख़ाँ* है बता मुझे

वो फ़स्ल कौन-सी, जिसे सींचते हैं अश्क
दरिया ये किस जहत* में रवाँ है बता मुझे

देता नहीं है कोई यहाँ उम्रभर का साथ
कल तक जो हमसफ़र था, कहाँ है बता मुझे

क्यों कारोबारे-शौक़ से उकता गए हैं लोग
दिल के सिवा जो इसमें ज़ियाँ* है बता मुझे

तू मेरे साथ-साथ रहा है, सबूत दे
किस रास्ते पे मेरा मकाँ है बता मुझे

जब मैं नहीं तो मुझको मेरी शोहरतों से क्या
किस काम का ये नामो-निशाँ है बता मुझे

1- शहरे-शोला-रुख़ाँ*-सुंदर चेहरों का शहर
2- जहत*--दिशा
3-  ज़ियाँ*--हानि

शहर में तेरे वो भी मौसम ऐ दिल आने वाले हैं

(105)

शहर में तेरे वो भी मौसम ऐ दिल आने वाले हैं
आन मिले के रिश्तों को भी लोग भुलाने वाले हैं

सोच के अपने ख़ालीपन को,बैन न कर हलकान न हो
ख़ुश्क नदी हम तेरे किनारे नीर बहाने वाले हैं

आँखों में खामोश हुए अब शोर मचाते आँसू भी
हिज़्र की शब, बर्फ़ीली रुत, सन्नाटे छाने वाले हैं

आना-जाना लगा रहेगा, तेरी बज़्म सजी रहे
कितने यार सिधार गए, अब हम भी जाने वाले हैं

सोच रहे थे बंद हवा की दावत दें तो कैसे दें
हमने देखा कुछ दीवाने दीप जलाने वाले हैं

बीत गया बरसात का मौसम और उन्हें अब लिखूँ क्या
जाड़ों के मेहमान परिंदे, लौट के आने वाले हैं

बुधवार, 5 सितंबर 2012

अब के भी यह रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री

(104)

अब के भी यह रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री
गुज़री है,  मगर नीर बहाते हुए गुज़री

जीने का ये अंदाज़ तो देखो कि मेरी उम्र
जीने के लिए ख़ुद को मनाते हुए गुज़री

काजल-सा बरसता था फ़िज़ा से कि मेरी रात
बे-तेल के दीपक को जलाते हुए गुज़री

गुज़री भी तो किस क़हर से गुज़री है ये पुरवा
सोए हुए ज़ख़्मों को जगाते हुए गुज़री

तरबीर ना मिल पाई तो क्या दुख कि शबे-ग़म
कुछ ख़्वाब तो पलकों पे सजाते हुए गुज़री

नाकाम ये कोशिश थी मगर हिज़्र की हर शब
खुद को, कभी दुनिया को भुलाते हुए गुज़री
1- तरबीर--स्वप्न-फल

अश्क पलकों पे उठा ले आऊँ

(103)
अश्क पलकों पे उठा ले आऊँ
आँख उर्यां* है, क़बा* ले आऊँ

अब तो इस दश्त में दम घुटता है
शहर से उसके, हवा ले आऊँ

तुम भी अब ताज़ा सनम को पूजो
मैं भी इक और ख़ुदा ले आऊँ

वो भी इस रात अकेला होगा
अब उसे घर से बुला ले आऊँ

लुट चुका सारा असासा* दिल का
जान ही अब तो बचा ले आऊँ

रोज़ इस सोच में सूरज निकला
धूप से पहले घटा ले आऊँ
1- उर्यां*--नग्न
2- क़बा*--वस्त्र
3- असासा*--पूँजी

लुटा जो नगर था वफ़ा नाम का

(102)
लुटा जो नगर था वफ़ा नाम का
निशाँ तक ना बाक़ी रहा नाम का

भरी दोपहर में कहाँ गुम हुआ
यहाँ था जो इक बुत ख़ुदा नाम का

हवा ले उड़ी, कुछ नमी खा गई
वरक़ था कि बंजर हुआ नाम का

कहाँ तन से दस्ते-दुआ* कट गिरे
सहारा भी टूटा जो था नाम का

रगों में नहीं कुछ वजुज़* कर्ब* के
कहाँ है वो पल इन्तहा नाम का

1-दस्ते-दुआ*-प्रार्थना करने वाले हाथ
2- वजुज़*-सिवाय
3- कर्ब*-पीड़ा

रविवार, 2 सितंबर 2012

चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया


(101)
आगे पहुँची जल की धारा बजरा पीछे छूट गया
रस्ता छोड़ सवारों को मैं प्यादा पीछे छूट गया

ये बस्ती कौन-सी बस्ती है, आके कहाँ बस ठहर गई
चाहा था जिस धाम रुकें, वो क़स्बा पीछे छूट गया

आगे-आगे लंबी डगर है रेत-भरे मैदानों की
जिस तट इक पल ठहरे थे, वह दरिया पीछे छूट गया

बैठे हैं सैलानी सारे,पतझड़ है विश्वासों का
मंदिर छूटा, गिरजा छूटा, काबा पीछे छूट गया

कितने कुछ थे जीवन-साथी, कितने कुछ थे लहू-शरीक
चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया

बुधवार, 1 अगस्त 2012

न चलने दूँ लहू में आँधियाँ अब

(100)
न चलने दूँ लहू में आँधियाँ अब
हुई है गोद की बच्ची जवाँ अब

उदासी से भरे गुमसुम घरों में
तमाशा बन गईं परछाईंयाँ अब

भरोसा किसको है पैरों पे अपने
ज़रूरी हो गईं बैसाखियाँ अब

बज़ाहिर पुर-सकूँ* शहरे-हवस* में
लड़ा करती हैं बाहम* कुर्सियाँ अब

बढ़ा क़र्ज़ा मगर खाते में अपने
लिखी जाने लगीं खुशहालियाँ अब

ज़मीनें बाँझ होती जा रही हैं
लहू पीने लगीं आबादियाँ अब

1- पुर-सकूँ*-शांत
2-शहरे-हवस*-स्वार्थों का नगर
3-बाहम*-परस्पर

बुधवार, 11 जुलाई 2012

भूलकर भी अब न उस बुत को सरापा* सोचना

(99)
भूलकर भी अब न उस बुत को सरापा* सोचना
आइने के सामने अपना ही चेहरा सोचना

गुफ़्तगू में उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ बोलना
और तनहाई में इस ज़ालिम का रूतबा सोचना

रू-ब-रू जब तक रहें अपनों से रहना बदगुमाँ
जब बिछुड़ जाएँ तो अपनों को प्यारा सोचना

तिश्ना-लब* सोना मगर ख़्वाबों में दरिया देखना
दरमियाँ सागर के रहना, खुद को प्यासा सोचना

आदमी और अंजुमन* के बीच निस्बत* ढूँढ़ना
भीड़ में ख़ामोश रहना, घर में क्या-क्या सोचना

बैठ जाना बूँद पड़ते ही बताशे की तरह
फिर भी अपने आपको पत्थर का टुकड़ा सोचना

1- सर से पाँव तक,छवि
2-प्यासा
3-सभा
4-संबंध

बुधवार, 6 जून 2012

आदमी को बेवतन, घर को जज़ीरा मान लूँ

(98)
आदमी को बेवतन, घर को जज़ीरा मान लूँ
क्यों न अब ख़ुद को भी इस मंज़र का हिस्सा मान लूँ

क़हक़हों की गूँज से लरज़ा न दूँ दीवारों-दर
क्यों न हर ज़हमत* को अब पल भर का क़िस्सा मान लूँ

निस्बतें* जो कल बनेंगी उनका अंदाज़ा करूँ
टूटते रिश्तों को मौसम का तक़ाज़ा मान लूँ

वो ही तेवर के नियाज़ी थे, वही अंदाज़ों-रंग
क्यों न हर चेहरे को अब तेरा ही चेहरा मान लूँ

हिल गई बुनियाद लेकिन बामो-दर टूटे नहीं
वक़्त से पहले ही क्यों दिल को शकिस्ता* मान लूँ

क्या ख़बर वो बस्तियाँ, वो लोग अब बाक़ी न हों
रास्ते से लौट जाऊँ दिल का कहना मान लूँ
1- कष्ट
2-रिश्ते
3-खंडित

तू मेरी बेहिसाब माँ

(97)
वही हूँ मैं, वही ज़मीं, वही है माहताब माँ
बस एक गुल बहिश्त* का हुआ है ख़्वाब-ख़्वाब मां

मेरी नज़र में आज भी खिली है कहकशाँ-सी* तू
मैं यक़-क़दह* लहू तेरा, तू मेरी बेहिसाब माँ

न सोचना कि हक़ तेरा अदा न मुझसे हो सका
कि तेरे-मेरे दरमियाँ न था कोई हिसाब माँ

सफ़ेद हो चला हूँ अब तेरे कफ़न के रंग-सा
कभी उठा के देख तो यह क़ब्र की नक़ाब माँ

रखा तो होगा जेब में उसी तरह क़लम तेरा 
कभी तो भेज ख़त मुझे, कभी तो भेज जवाब माँ

1- स्वर्ग
2- आकाश गंगा
3- प्याला भर

रविवार, 6 मई 2012

टूटकर भी आइना अक्स-आशना है जाने-मन

टूटकर भी आइना अक्स-आशना* है जाने-मन
इस तरह जीने का किसको हौसला है जाने-मन

कुछ-न-कुछ तो है तअल्लुक़ अब वो जुज़वन* ही सही
सबका सब तो कौन किसका हो सका है जाने-मन

ज़िंदगी भर कौन किसका साथ देता है यहाँ
एक लम्हे की वफ़ा भी तो वफ़ा है जाने-मन

लफ़्ज़ पर विश्वास करना भी है लाचारी मेरी
कौन किसके अंदरूँ* को जानता है जाने-मन

अब असर-अंदाज़* कोई सानेहा होता नहीं
अब कि दिल सीने में पत्थर हो चुका है जाने-मन

1-प्रतिबिंब से जुड़ा हुआ
2-आंशिक
3-भीतर, मनःस्थिति
4-असर करने वाला


बुधवार, 21 मार्च 2012

'घर के रोशनदानों में अब काले पर्दे लटका दे'

(95)

घर के रोशनदानों में अब काले पर्दे लटका दे
रातों के मटियालेपन को थोड़ा और अँधेरा दे

दिन में सपने देखने वाले रस्ता-रस्ता बिखरे हैं
प्यासे दिल को दे न तमन्ना, दे तो साथ वसीला दे

शहर से जब भी लौट के आऊँ, देखूँ, सोचूँ, हैरत हो
सीधा-सादा बरगद अब भी धूप सहे और साया दे

लौटा तो अख़बार पुराना, बोला मेरी तलावत* कर
कमरे की दीवार का धब्बा, चीख़ा मुझको चेहरा दे

शहर की छीना-झपटी में सब अपने लोग मुक़ाबिल हैं
आलम अफ़रा-तफ़री का है, कौन किसी को मौक़ा दे

अक़्लो-हुनर* का मोल नहीं है, बस्ती में बंजारों की
मुझसे मेरी दानिश ले ले, लेकिन मौला पैसा दे

1- तलावत--अध्ययन
2- अक़्लो-हुनर--बुद्धि


मंगलवार, 20 मार्च 2012

'चुन रहा हूँ, सुबह को अँगनाई में बैठा हुआ'

(94)

चुन रहा हूँ, सुबह को अँगनाई में बैठा हुआ
दाना-दाना रात के खलिहान का बिखरा हुआ

आ, कि अब इस खोखलेपन पर हँसें बेसाख़्ता
तेरे आँसू तयशुदा थे, मेरा ग़म सोचा हुआ

उससे क्या कहता कि मेरी रूह छलनी हो गई
दोस्त था, इज़हारे-हमदर्दी से आसूदा हुआ

हादिसा ये घर के जलने से भी था संगीन-तर
उसके होठों पर मिला इक क़हक़हा चिपका हुआ

अब की बरखा में ये टूटी छतरियाँ काफ़ी नहीं
आँधियाँ उठने को हैं, बादल बहुत गहरा हुआ

1- इज़हारे-हमदर्दी--साहनुभूति की अभिव्यक्ति
2- आसूदा--संतुष्ट प्रसन्न 

'अपने होने का हम एहसास दिलाने आए'


(93)
अपने होने का हम एहसास दिलाने आए
घर में इक शमआ पसे-शाम जलाने आए

हाल घर का न कोई पूछने वाला आया
दोस्त आए भी तो मौसम की सुनाने आए

नाम तेरा कभी भूलूँ, कभी चेहरा भूलूँ
कैसे दिलचस्प मेरी जान ज़माने आए

ग़म के एहसास से जब भीग चली थीं आँखें
ठीक उस पल मुझे कुछ ज़ख़्म हँसाने आए

यों लगा जैसे कलाई की घड़ी है तू भी
हम जो कुछ वक़्त तेरे साथ गँवाने आए

हम से बेफ़ैज फ़क़ीरों की है परवा किसको
रूठ जाएँ तो हमें कौन मनाने आए

सोमवार, 19 मार्च 2012

'भरोसा उसे मेरी यारी का है'

(92)
भरोसा उसे मेरी यारी का है
हुनर मुझमें मतलब-बरारी का है

मेरे दिल को दुनिया से नफ़रत न थी
नतीजा तेरी ग़म-गुसारी का है

मैं अज़-ख़ुद* बिखरना न चाहूँ मगर
अजब वक़्त ख़ुद-इंतशारी* का है

बहाने का रंजिश के जोया है वह
यह मौक़ा अजब होशियारी का है

तख़ातुब* में इज़्ज़त भी, अलक़ाब भी
ये सब सिलसिला नागवारी* का है

गिराँ मुझपे है होशमंदी तेरी
तुझे दुख मेरी मयगुसारी का है

1- अज़-ख़ुद--अपने आप
2- ख़ुद-इंतशारी--स्वयं का बिखराव
3- तख़ातुब--संबोधन
4- अलक़ाब--सम्मानसूचक शब्द
5- नागवारी--अप्रसन्नता

रविवार, 18 मार्च 2012

मेरे लहू की आग: 'जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया'

मेरे लहू की आग: 'जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया': (91) जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया रेत नहाने वाले पंछी सावन सूखा चला गया भीगी घास पे गुमसुम बैठा सोच रहा हूँ शाम-ढले जेठ क...

'जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया'


(91)
जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया
रेत नहाने वाले पंछी सावन सूखा चला गया

भीगी घास पे गुमसुम बैठा सोच रहा हूँ शाम-ढले
जेठ की तपती गर्म हवा-सा जीवन गुज़रा, चला गया

मेरे भेस में उसने पाया मेरे जैसा और कोई
वो मुझसे मिलने आया था, तनहा-तनहा चला गया

ख़ौफ-ज़दा थे लोग, न निकले देखने करतब साँपों का
आज सपेरा बस्ती-बस्ती बीन बजाता चला गया

होना और न होना मेरा दोनों ही मशकूक* हुए
उसके रहते अपने ऊपर था जो भरोसा चला गया

कैसे उसको छत पर अपनी रोक के रखना मुमकिन था
वो इक टुकड़ा बादल का था, आया, बरसा, चला गया

1-मशकूक--संदिग्ध

मेरे लहू की आग: 'फ़र्ज़ी सुख पर करके भरोसा खुद को हँसाया दिन-दिन भ...

मेरे लहू की आग: 'फ़र्ज़ी सुख पर करके भरोसा खुद को हँसाया दिन-दिन भ...: (90) फ़िक्रे-सुख़न* में रातें काँटीं, ख़ून जलाया दिन-दिन भर शब को उड़ा जो छत से कबूतर,हाथ ना आया दिन-दिन भर शाम हुई तो देखा अक्सर नक़्श...

'फ़र्ज़ी सुख पर करके भरोसा खुद को हँसाया दिन-दिन भर'

(90)

फ़िक्रे-सुख़न* में रातें काँटीं, ख़ून जलाया दिन-दिन भर
शब को उड़ा जो छत से कबूतर,हाथ ना आया दिन-दिन भर

शाम हुई तो देखा अक्सर नक़्शा अपनी तबाही का
ख़िश्ते-ख़याली* लेकर हमने महल बनाया दिन-दिन भर

बैठके घर में अच्छे दिनों के ख़्वाब दिखाए बच्चों को
फ़र्ज़ी सुख पर करके भरोसा खुद को हँसाया दिन-दिन भर

सर पर उठाकर इसको रख लें ऐसा कोई करिश्मा हो
किस हसरत से हमने देखा अपना साया दिन-दिन भर

कैसा क़ातिल मौसम आया जिसके साथ बिताई उम्र
लाख सई* की,नाम भी उसका याद ना आया दिन-दिन भर

खेत में आकर जब भी देखा, सारे पौधे प्यासे थे
रातों-रातों बरखा बरसी बादल छाया दिन-दिन भर

1-फ़ि़क़्रे-सुख़न--काव्य रचना के ध्यान में
2-ख़िश्ते-ख़याली--ख़याली ईंटें
3-सई- प्रयास

'किन परबतों पे तेशा* उठाए हुए हैं हम'

किन परबतों पे तेशा* उठाए हुए हैं हम
अपने लहू में आप नहाए हुए हैं हम

हर जिस्म इक मकान की मानंद है जहाँ
शिकमी-किराएदार* बसाए हुए हैं हम

चालाक हो गए है परिंदे मुँडेर के
जेबों में पत्थरों को छुपाए हुए हैं हम

करना पड़ा जो सामना अपना कभी तो फिर
अब तक तो ख़ुद को ख़ुद से छुपाए हुए हैं हम

है यों कि दस्तख़त हैं तमस्सुक* पे कर्ज़ के
हरचंद सब हिसाब चुकाए हुए हैं हम

1-तेशा- हथौड़ा
2-शिकमी-किराएदार-अवैध रूप से किराएदार द्वारा किरए पर दिया गया मकान
3-तमस्सुक-ऋण पत्र, रुक़्का

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

'कहता है आज दिन में उजाला बहुत है यार'


(88)
कहता है आज दिन में उजाला बहुत है यार
शायद ये शख़्स रात में जागा बहुत है यार

गुज़रा अभी है जुज़्बे-चहराम* ही रात का
यानी अभी चिराग़ को जलना बहुत है यार

सर सब्ज़ मौसमों की अलामत* तो है कोई
शाख़े-शजर* पे एक भी पत्ता बहुत है यार

हर साले-नौ* पे उसको लिखूं नेक ख़्वाहिशे*
आशोबे-रोज़गार* में इतना बहुत है यार

आँगन की उसके धूल है, इज़्ज़त भी अक़्ल भी
है यों कि उसके हाथ में पैसा बहुत है यार

1- जुज़्बे-चहराम*--चौथा भाग
2- अलामत*--निशानी
3- शाख़े-शजर*--वृक्ष की टहनी
4- साले-नौ*--नववर्ष
5- नेक ख़्वाहिशे*--शुभकामनाएं
6- आशोबे-रोज़गार*--दुनिया के झमेले