बुधवार, 6 जून 2012

तू मेरी बेहिसाब माँ

(97)
वही हूँ मैं, वही ज़मीं, वही है माहताब माँ
बस एक गुल बहिश्त* का हुआ है ख़्वाब-ख़्वाब मां

मेरी नज़र में आज भी खिली है कहकशाँ-सी* तू
मैं यक़-क़दह* लहू तेरा, तू मेरी बेहिसाब माँ

न सोचना कि हक़ तेरा अदा न मुझसे हो सका
कि तेरे-मेरे दरमियाँ न था कोई हिसाब माँ

सफ़ेद हो चला हूँ अब तेरे कफ़न के रंग-सा
कभी उठा के देख तो यह क़ब्र की नक़ाब माँ

रखा तो होगा जेब में उसी तरह क़लम तेरा 
कभी तो भेज ख़त मुझे, कभी तो भेज जवाब माँ

1- स्वर्ग
2- आकाश गंगा
3- प्याला भर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें