गुरुवार, 25 अगस्त 2011

'मेघ नगर से तन्हा लौटे, खोदी नहर अकेले में'

(42)
मेघ नगर से तन्हा लौटे, खोदी नहर अकेले में
बीच सभा में जंगल देखा, पाया शहर अकेले में

वो क्यों रूकते, साथ था उनके ऊँचे रुतबे वाला इक
इतनी छोटी बात ने लेकिन ढाया क़हर अकेले में

लोग है गीले असर जैसे, हम हैं सिपाही-चूस अजब
सात समुंदर विष के पीकर, उगलें ज़हर अकेले में

उम्र में अपनी हम भी पाते इक पल दुनिया दारी का
बैठ के अक्सर सोचा हमनें दो-दो पहर अकेले में

झूठे-सच्चे सारे माज़ीघात लगाए बैठे हैं
टूटे-फूटे घर के अंदर, अब मत ठहर अकेले में

एक तिलिस्मी डोर में लिपटी चलती-फिरती भीड़ लगी
ताश के बिखरे पत्तों-जैसा, देखा दहर अकेले में

जीवन साथी सामने सबके स्वांग भरे हमदर्दी का
रात में लेकिन हमसे माँगे अपने 'मेहर' अकेले में

'हिज्र का दाग़, न है दर्द का शोला मुझमें'


(41)
हिज्र का दाग़, न है दर्द का शोला मुझमें
अब तो उस शख़्स को ढूँढ़ो न ख़ुदारा मुझमें

लो न मरहूम अज़ीज़ों की तरह नामे-वफ़ा
मर न जाए कोई बीमार मसीहा मुझमें

थक के सो जाते हैं, जब शहर के राही चुपचाप
जाग उठता है कोई दूर का रस्ता मुझमें

नागवारी की तपिश अब नहीं करती बेताब
सुन्न हुआ जैसे वो इक उम्र का गुस्सा मुझमें

भीग जाते हैं यकायक मेरे सूखे हुए लब
अब भी ज़िंदा है वो बरसात का लम्हा मुझमें

आइनें को न मिली देखने वाली आँखें
सुबह तक डूब गया ख़ुद मेरा चेहरा मुझमें

'खुद मैं हूँ कि तू या तेरा धोखा है, कोई है'

(40)
खुद मैं हूँ कि तू या तेरा धोखा है, कोई है
कहता हूँ नहीं है तो निकलता है, कोई है

तन्हाई की ये शब कि ख़ुदा तक नहीं लेकिन
दिल फिर भी अँधेरे में यह कहता है, कोई है

ये रात कि पत्तों से चमकती हुई आँखें
ये दश्त कि हर गाम ये खटका है, कोई है

क्या जाने ये है कौन मेरे दर-पए-आज़ार
मिचती है कभी आँख तो लगता है, कोई है

है कोई कि इक पल के लिए आके झलक दे
ख़ाली मेरी आँखों का दरिचा है, कोई है

इक बूढ़ा भिखारी था कि आया नहीं, कल से
फिर कौन मेरे दर पे ये चीखा है, कोई है

बुधवार, 24 अगस्त 2011

'मुझसे मेरा जज़्बा जुदा'

(39)
दिन,रात से बे-वास्ता, साए से हमसाया जुदा
साँसें ये जब मुझको मिली, लम्हे से था लम्हा जुदा

टपका गई थी सब छतें पिछली झड़ी बरसात की
लेकिन हुआ अब के बरस चौखट से दरवाज़ा जुदा

बेकारो-बेमानी हुए, कल तक के सारे सिलसिले
बस्ती से हंगामें जुदा, जंगल से सन्नाटा जुदा

यों भी तो हम अक्सर मिले अपना अधूरापन लिए
उसकी तड़प उससे अलग, मुझसे मेरा जज़्बा जुदा

ऐसा भी क्या हिज्राँ की रात, आलम है इस बिखराव का
रंगों से तस्वीरें अलग, हैरत से आईना जुदा

तनहा-रवी का ग़म ही क्या, मिलते भी हम तो कब कहाँ
थी मुख़तलिफ़ अपनी रविश, दुनिया का था रस्ता जुदा
1-हिज्राँ की रात---वियोग

'झुलसते शहर में सूरज बिखर गया तो क्या'

(38)
झुलसते शहर में सूरज बिखर गया तो क्या
ख़ुशी का ज़हर रगों में उतर गया तो क्या

हवा, हवा है, न ठहरी कहीं, न ठहरेगी
मैं चलते-चलते जो इक पल ठहर गया तो क्या

वो इक नफ़स जिसे अपने से कर चुका हूँ अलग
अगर न गुज़रा तो क्या है, गुज़र गया तो क्या

जो तुम भी आए तो बच-बच के पाँव रक्खोगे
मैं गिरके शीशे की सूरत बिखर गया तो क्या

उठा के संग समुंदर में फेंकते हो मगर
ये ज़ख़्म पानी का, पानी से भर गया तो क्या

यहाँ तो रोज़ ही मुझ जैसे लोग मरते हैं
अब इस हुजूम में इक मैं भी मर गया तो क्या

'वो इक ख़याल के गुंचे का फूल में ढलना'

(37)
न गफ़लतें कहीं ऐसी, न आगही ऐसी
कहाँ किसी ने गुज़ारी है ज़िंदगी ऐसी

किस आबो-ताब से चमका था लम्हा भर का कोई
तमाम रात मिली फिर न रोशनी ऐसी

कोई बताए कहाँ जाके दिल को बहलाएँ
उदासियों में कभी थी न बे-दिली ऐसी

हमें तो जो भी मिला है, शरीफ लगता था
ख़ुदा किसी को कभी दे न सादगी ऐसी

वो इक ख़याल के गुंचे का फूल में ढलना
कहाँ कली को मिली है शगुफ्तग़ी ऐसी

'चेहरा कहाँ गुम हो गया'

आँधियों में कुछ तो ढूँढ़ों, क्या यहाँ गुम हो गया
यह जमीं गुम हो गई या आसमाँ गुम हो गया

जिसकी पेशानी पे लिखा था, किराए का लिए
अजनबी सड़कों पे वो ख़ाली मकाँ गुम हो गया

भीगे कपड़ों को निचोड़ा था यह किसके हाथ ने
सिलवटों की भीड़ में चेहरा कहाँ गुम हो गया

रंग जितने थे, वो सब ख़ुशबू की सूरत उड़ गए
बंद मुट्ठी क्या खुली, सारा जहाँ गुम हो गया

अब तो दरियाओं में भी चलते हैं झक्कड़ गर्द के
याद बाक़ी रह गई आबे-रवाँ गुम हो गया

शहर से जब शहर मिलता है बिछुड़ जाते हैं लोग
तुम वहाँ खोए गए हो, मैं यहाँ गुम हो गया

आने वाले लोग अब पानी पे घर बनवाएँगे
अबके तूफाँ में तो ख़तरें का निशाँ गुम गो गया

रविवार, 21 अगस्त 2011

'गर्द की तरह गुज़र जाएंगे ठहरो भाई'

गर्द की तरह गुज़र जाएंगे ठहरो भाई
रमते जोगी है, बहुत हमसे न उलझो भाई

इसमें शायद कहीं पानी की कोई बूँद भी हो
रेत मुट्ठी में ज़रा भर के निचोड़ो भाई

तुमसे लाखों हैं जो पत्थर के बने बैठे हैं
इस तिलिस्मात में मुड़-मुड़ के ना देखो भाई

आख़िरी पत्ता तो गिर जाने दो इस मौसम का
अब जो आ ही गए, कुछ देर तो बैठो, भाई

कुछ तो ख़्वाबों के परिंदों को बसेरा दे दो
टूटती रात है अब और न जागो भाई

हम तो झोंका हैं ख़्यालों का, न पकड़ों हमको
सिर्फ़ महसूस करो, मुँह से न बोलो भाई

ख़ाक को कीमिया* करने का हुनर हममें नहीं
हम निकम्मे हैं बहुत, हमको न चाहो भाई

1-कीमिया*--रसायन

'कल के बाज़ार में जिसकी क़ीमत न हो'

(34)
कल के बाज़ार में जिसकी क़ीमत न हो
ऐसा अंदोख़्ता* क्या बचाए कोई
ख़ुद को अब इस तरह ख़र्च करता हूँ मैं
जैसे माले-गनीमत* लुटाए कोई

तेज़ आँधी सही, घुप अंधेरा सही
फिर भी अपने दरीचे खुले छोड़ दो
घर से बिछुड़ा हुआ, घर को भूला हुआ
क्या ख़बर है यहाँ आ ही जाए कोई

नर्म मख़मल-सा जब तक मैं फैला रहा
मुझको पैरों तले ख़ूब रौंदा गया
अब की शीशा हूँ राहों में बिखरा हुआ
पा-बरहना* यहाँ, अब न आए कोई

नीचे धरती की चादर सुलगती हुई
सर पे सूरज का गोला दहकता हुआ
दरमियाँ में ख़ला* कोई बादल न छत
तुम ही सोचों कहाँ सर छिपाए कोई

हर बुने-मू* से दिन-रात बहता हुआ
जून के तुंद सूरज का सैचाल-सा*
किस बुलंदी पे जाकर हवा मर गई
अब कहाँ जिस्म अपना सुखाए कोई

1- अंदोख़्ता--जमा-पूंजी
2- माले-गनीमत*--लूट का माल
3- पा-बरहना*--नंगे पाँव
4- ख़ला*--खाली जगह
5- बुने-मू*--बाल की जड़
6- सैचाल--तरलता