शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

'कौन आएगा यहाँ लेके सँदेशा उसका '


(67)
कौन आएगा यहाँ लेके सँदेशा उसका
खुशकुशी कर भी चुका पाक फ़रिश्ता उसका

अपने पहलू में खिलाता है वो हर शब कोई फूल
सुबह से पहले भुला देना है चेहरा उसका

ऐब की तरह न खुलना है महारत उसकी
बरमला प्यार का इज़हार है पेशा उसका

बेल-आकाश कि होकर भी न हो जुज़्बे-दरख़्त*
जिंदा रहने का ये उस्लूब* अनोखा उसका

बे-रिया* था तो कभी सख़्त भी होता वो शख़्स
वजह रंजिश की है सैयाल* रवैया उसका

1-वृक्ष का भाग
2-शैली
3-निश्छल
4-तरल

'शहर की भीड़ से भागूँ तो है सहरा दरपेश'


(66)
शहर की भीड़ से भागूँ तो है सहरा दरपेश
नफ़अ* के नाम पे इक और ख़सारा दरपेश

थक के बाज़ार से लौटा हूँ तो घर सामने है
यानी तन्हाई को इक और ख़राबा* दरपेश

शुक्र करता था कि बादल तो धुँए का गुज़रा
अब है इक आग उगलता हुआ दरिया दरपेश

लफ़्ज़ को चीरूँ तो इक मुर्दा सदाक़त* मौजूद
आँख खोलूँ तो है मरता हुआ लम्हा दरपेश

आइना सौंप रहा है मेरा चेहरा मुझको
जिससे भागा था ये दिल है वही नक़्शा दरपेश
1- लाभ
2-वीराना
3-यथार्थ

'छत से उतरा साथी इक'



(65)
छत से उतरा साथी इक
मैं और नन्हा पंछी इक

सूरज निकला पाया क्या
गुमसुम रात की रानी इक

जीवन शहर दरिंदों का
याद अकेली नारी इक

सारे घर को खोले कौन
सत्तर ताले, चाबी इक

रोगी काया, बरखा रूत
तन पर भीगी कमली इक

ख़ुद में तुझको जोड़ूँ आ
मैं भी एक हूँ, तू भी इक

'आँगन आँगन फिरते देखी, सूरज जैसी चीज़ कोई'

(64)
क़रिया-ए-इम्काँ*, आग सफ़र की, जज़्बा, सहरा-गर्द* मिला
मुश्किल हर उफ़ताद* थी लेकिन, सहने मेंदिन फ़र्द* मिला

बरसों-बरसों रहते हुए भी, घर के एक अहाते में
ख़्वाब की औऱत मुझको मिली और उसको ख़्याली मर्द मिला

आँगन आँगन फिरते देखी, सूरज जैसी चीज़ कोई
लेकिन जब-जब झाँक के देखा, मौसम घर का सर्द मिला


दश्ते-बदन* में पिन्हाँ पाई कैसी बे-तिस्कीनी-सी*
टूट के ख़ुद को चाहने वाला दिनभर कूचा गर्द* मिला

हँसते-हँसते याद दिलाई उसने पुराने जख़्मों की
बरसों बाद अचानक हमको शहर में इक हमदर्द मिला

1-संभावनाओं का शहर
2-जंगल-जंगल भ्रमण करने वाला
3-विपत्ति
4-बेजोड़
5-अस्तित्व के वन में
6-व्यग्रता
7-गली-गली भटकने वाला

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

'लोग पुकारे जाएँगे, जब नाम से अपनी माओं के'

(63)
रोगी ज़ौजा*, घोर थकन, ख़्वाब-आवर* जुर्रे* से आगाह
मैं तो नहीं हूँ, वो तो होगा, उलझे रिश्ते से आगाह

बीज में सपना जैसी कोंपल, ऊपर सूखा मरता फूल
धुंध में बे-आसारी को मैं गिरते मलबे से आगाह

लोग पुकारे जाएँगे, जब नाम से अपनी माओं के
उस दिन शायद कोई न होगा नुत्फ़े* से आगाह

बंद दुकान ये दारू की और उसके आगे रूकता मैं
मुर्दा नींदें काश न होतीं अपने नुसख़े से आगाह

नाज़ेबा* बातों पर अपनी हम ख़ुद लज़्ज़त लेते थे
नाख़ुश-नाख़ुश लोग कहाँ थे निस्फ़* दरिंदे से आगाह

1- रोगी ज़ौजा--बीवी, पत्नी
2- ख़्वाब-आवर--नींद लाने वाला
3- जुर्रे* --घूँट
4-परिचित
5-नुत्फ़े*--गर्भ
6-नाज़ेबा*--अशोभनीय
7-निस्फ़--अर्द्ध

'जिंदगी! है किसी दीवार का साया तू भी'

(62)
दश्ते-इमरोज* में अक्से-शबे-रफ़्ता* तू भी
मैं भी गुज़रे हुए लम्हों का मुसन्ना* तू भी

दोनों एक झूठ का इज़हार है, तू भी, मैं भी
मैं भी सच्चा हूँ, बज़ाहिर नहीं झूठा तू भी

मुझको पत्थर की तरह छोड़ के पाताल में अब
जिंदगी! बन गई बहता हुआ दरिया तू भी

बीती यादें, न यहाँ टूटते रिश्तों की चुभन
गाँव को छोड़ के अब शहर में आ जा तू भी

ज़ाविया* धूप के हमराह बदलता है तेरा
जिंदगी! है किसी दीवार का साया तू भी

1- दश्ते-इमरोज--वर्तमान के वन में
2- अक्से-शबे-रफ़्ता--गुज़री हुई रात की परछाई
3- मुसन्ना*--प्रतिलिपि
4- ज़ाविया*--कोण

सोमवार, 26 सितंबर 2011

'हम लिए बैठे हैं गुज़रे हुए दिन की पहचान'


(61)
इश्क़ क्या शय हो? जमाने की हवा कैसी हो
किसको मालूम है, कल बज़ए-वफ़ा* कैसी हो

हम लिए बैठे हैं गुज़रे हुए दिन की पहचान
जाने कल भीड़ में उस बुत की क़बा* कैसी हो

लफ़्ज़ का किसको भरोसा कि ख़बर ये भी नहीं
कल मेरे लब से जो निकले वो नवा* कैसी हो

उम्र जब दे चुके गुज़रे हुए लम्हों को तलाक़
जाने उस वक़्त मेरे घर की फ़िजा कैसी हो

आज की शब के तअल्लुक से कर कल का क़यास*
सुबह तक उसकी रविश किसको पता कैसी हो

1- बज़ए-वफ़ा*--वफ़ा का ढ़ग
2- क़बा*---वस्त्र
3- नवा*--आवाज़
4- क़यास*--अनुमान

'दुल्हन एक तलाक़-शुदा-सी अंदर घर के बैठी है'


(60)
चुप बाहर के दरवाज़े पर सच-ना सच का किस्सा अब
झूठ हलफ़नामे लिखने पर अफ़सोस नहीं होता अब

टेढ़ी-तिरछी बातें हरदम ज़हन में आती रहती है
पैंसिल से काग़ज़ पर भी सीधा ख़त* नहीं खिंचता अब

दुल्हन एक तलाक़-शुदा-सी अंदर घर के बैठी है
पूछूँ कितना बाक़ी है अर्सा उसकी इद्दत* का अब

कुछ अनदेखी आँखें हरदम जलती-बुझती रहती हैं
ख़ुद अपने दामन पर भी अपना ज़ोर नहीं चलता अब

अपने हों या और किसी के सारे दुख बेमानी हैं
पहलू-पहलू दर्द जगाकर दिल ये हक़ीक़त समझा अब

1-ख़त*--रेखा
2-इद्दत*--वह अवधि जो तलाक़ के बाद मुस्लिम औरत को कठोर पर्दे में व्यतीत करना पड़ता है

'गुमशुदा अक्स* को आईने में लाकर रख लूँ'


(59)
गुमशुदा अक्स* को आईने में लाकर रख लूँ
मै भी पत्थर में कोई फूल उगाकर रख लूँ

कम नज़र* मैं लहूँ, तहे ज़ात की दोहरी-तिहरी
नार-साई* मैं तुझे दोस्त बनाकर रख लूँ

अब तो ऐसा भी नहीं छोड़ ही जाए कोई शाम
याद ऐसी, जिसे सीने से लगाकर रख लूँ

सर्द रातों में कभी जिससे तपिश* मिलती थी
अब वो अंगारा हथेली पे उठाकर रख लूँ

विस्फ़-शब* आएगा इक शख़्स बुझाने वाला
ताक़े-दिल तुझमें कोई शमा जलाकर रख लूँ

मुझसे वाबस्ता है अब तक वही कातिल चेहरा
जिंदगी! काश तुझे ख़ुद से बचाकर रख लूँ

1- अक्स*--बिंब
2- कम नज़र*--कम समझ वाला
3- नार-साई*--यथार्थ तक न पहुंच पाने की स्थिति
4-तपिश* --गर्मी
5-विस्फ़-शब*--आधी रात

'दहक रहा था मगर बेज़बान मुझ-सा था'

(58)
दहक रहा था मगर बेज़बान मुझ-सा था
कि रात सर पे मेरे आसमान मुझ-सा था

सभी अज़ीज़ थे उसके मगर नहीं था वही
वो एक शख़्स कि बे-ख़नादान मुझ-सा था

छतों से चिपकी हुई बेसदा अबाबीलें
अँधेरी रात में ख़ाली मकान मुझ-सा था

लहू में काई जमी थी मगर बुरा न लगा
मेरे सिवा भी कोई ख़ुश-गुमान मुझ-सा था

कटी-फटी सी जमीने, झुके-झुके से शजर
क़रीब जाके जो देखा, जहान मुझ-सा था

पसीना उसका न टपका तेरे लहू पर कहीं
वफ़ा की राह में वो भी जवान मुझ-सा था