मंगलवार, 29 जनवरी 2013

'फिर वही आवारगी है, फिर वही शर्मिंदगी'

(111)
उम्र के अय्याम* गुज़रे, रह गई शर्मिंदगी
ज़िंदगी क्या हमसे पूछो, ज़िंदगी शर्मिंदगी 

सच कहूँ तो याद हैं लेदे के दो ही हालतें
बेख़ुदी की कज-ख़रामी*, होश की शर्मिंदगी 

अब मलामत* का भी कुछ दिल पर असर होता नहीं
बेहिसी बढ़ने लगी, जाती रही शर्मिंदगी 

उम्र-भर की अंजुमन-आराइयो* से क्या मिला
इब्तदा* की सरख़ुशी, अंजाम की शर्मिंदगी 

हर शिकायत पर, वो उसकी बेनियाज़ाना* हँसी
पूछिए मत, किस तरह हमने सही शर्मिंदगी 

ख़ानक़ाही चंद दिन की गोशा-गीरी* और बस
फिर वही आवारगी है, फिर वही शर्मिंदगी 

1- अय्याम-रात-दिन
2- कज-ख़रामी- लड़खड़ाहट
3- मलामत--फ़टकार
4- अंजुमन-आराइयो--सभाएँ आयोजित करना
5-इब्तदा-प्रारंभ
6-बेनियाज़ाना--लापरवाह
7-गोशा-गीरी--एकांत