मंगलवार, 21 जून 2011

सौ बार लौह-ए-दिल  से  मिटाया  गया  मुझे
मैं था वो हर्फ-ए-हक़ के भुलाया गया मुझे।
एक जर्रा-ए-हक़ीर तेरी रहगुजर का था,
लाल-ए-यमां ना था के गंवाया गया मुझे।
लिखे गये कफन से मेरा तन ढका गया,
बे-क़तबा मक़बरों में दबाया गया मुझे।
महरूम करके सांवली मिट्टी के लम्स से,
खुश रंग पत्थरों में दबाया गया मुझे।
पिन्हा थी मेरे तन में कई सूरजों की आग,
लाखों समंदरों में डुबोया गया मुझे।
किस-किस के घर का नूर थी मेरे लहू की आग,
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे।
मैं भी तो एक सवाल था हल ढ़ूढते मेरा,
ये क्या के चुटकियों मे उड़ाया गया मुझे।

रविवार, 19 जून 2011

साएबां मेरा

धमक कहीं हो लरज़ती हैं खिड़कियां मेरी
घटा कहीं हो टपकता है साएबां मेरा।