बुधवार, 14 सितंबर 2011

'अपने दिल में जीने का अरमान न ला'

(55)
अक्स पुराना दे न सके तो दरपन पर बहुतान न ला
मेरे पुराने चाहत-नामे वापस मेरी जान न ला

बादल घिर-घिर आते थे जब चिड़ियाँ रेत नहाती थीं
वो दिन कब के बीत गए, उन बातों पर ईमान न ला

कुछ और नए हथियार जुटा, और वार करे तो सोच के कर
मेरी छाती पत्थर की है, अब वो पुराने बान न ला

शाम के नेमत-ख़ाने में कल सुब्ह की ख़ातिर छोड़ न कुछ
कल का आलम किसने देखा, कल के लिए सामान न ला

ज़िंदा रहकर जान ग़नीमत साँस के आने जाने को
इससे बढ़कर अपने दिल में जीने का अरमान न ला

इज़्ज़त जिसका नाम है भाई, वो है नाज़ुक चीज़ बहुत
बस्ती-बस्ती घूम के घर आ, साथ मगर मेहमान न ला

1- बिंब
2- प्रेमपत्र
3- रसोई की अलमारी

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

'प्यार की मीठी बात कहो तो...'

(54)
प्यार की मीठी बात कहो तो बोझल उसकी तबीअत हो
कमसिन लड़की ऐसी, जैसे पुख़्ता उम्र की औरत हो

अब भी अक्सर आता है यों ध्यान पुराने रिश्तों का
जैसे दुनियाभर बशर की आदत वजहे-इबादत* हो

अब कि तअल्लुक़ मुश्किल फ़न है, मुझसे फ़क़त वो शख़्स मिले
हस्बे-ज़रूरत* हंसना-रोना, जिसको इसमें महारत हो

आख़िर क़ायल हम भी हुए हैं थककर उसकी दलीलों से
शिकवा करके सोचा यह था, शायद उसको नदामत हो

दर्द के ख़ोशे* चुनते-चुनते हाथ मेरे पथारने लगे
फ़स्ल को तेरी आग लगा दूँ, ऐ दिल अब तो इज़ाजत हो

1- वजहे-इबादत*--पूजा पाठ का कारण
2- हस्बे-ज़रूरत*--आवश्यकतानुसार
3- ख़ोशे*--दाने

'पर्दा उठना था कि....'

(53)
पर्दा उठना था कि हिद्दत* धूप की मजर में थी
हम थे और उम्मीद की बेचारगी* मंज़र में थी

अपनी ख़स्ता चाहतें जब लेके हम रूख़्सत हुए
ख़ुश्क पत्तों से हवा की दोस्ती मंज़र में थी

टूटकर क़ौसे-क़ज़ह* से क़हक़हा करते थे रंग
इस उफ़ुक़* से उस उफ़ुक़ तक बेबसी मंज़र में थी

बुझ रहा था दिन की पेशानी पे सूरज का जलाल
तीरगी* के बीच कुछ-कुछ रोशनी मंज़र में थी

बह रही थी दूध-सी इक शय जटाओं से मेरी
रात पस-मंज़र* की सारी चाँदनी मंज़र में थी

1- हिद्दत*--गर्मी
2- बेचारगी*--बेबसी
3- क़ौसे-क़ज़ह*--इंद्र धनुष
4- उफ़ुक़*--क्षितिज
5- तीरगी*--अंधकार
6- पस-मंज़र*--पृष्ठभूमि