शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

"बिछुड़ के ख़ुद से चला था कि मर गया इक शख़्स"

(114)

तपिश से आग की पानी बचा तो होगा ही
बदन को देख कहीं आबला* तो होगा ही

ये बर्गे-सब्ज़* भी आख़िर ज़मीं का हिस्सा है
जो कुछ नहीं है, यहाँ हादिसा तो होगा ही

अभी से ख़ौफ़-सा क्या है की क़ुर्ब* का ये पल
जुदा तो होना है आख़िर, जुदा तो होगा ही

बिछुड़ के ख़ुद से चला था कि मर गया इक शख़्स
नज़र से गर नहीं देखा, सुना तो होगा ही

हवा के रूख़ को रवादारियों* का पर्दा क्या?
वो आज दोस्त है, इकदिन ख़फ़ा तो होगा ही।

1-आबला*--फफोला
2-बर्गे-सब्ज़*--हरा पत्ता
3-क़ुर्ब*--मिलन
4-रवादारियों*--रख-रखाव

"आख़िरी चेहरा समझकर ज़ह्न में रख लो मुझे"

(113)

कुश्तो-खूँ* है जिस्मों-जाँ* के दरमियाँ ऐसा न हो
मेरा अपना सर ही मेरे हाथ पर रक्खा न हो

ये भी मुमकिन है कि कज-बहसी* की आदत हो उसे
ये भी मुम्किन है वो मेरी बात ही समझा न हो

ख़ून की आँधी में सूरज डूबते देखा है रात
औऱ ख़्वाबों की तरह, यह ख़्वाब भी सच्चा न हो

कल का सूरज कौन से आलम में निकले क्या ख़बर
मैं जहाँ हूं, कल वहाँ बस धूल हो, दरिया न हो

मौसमों की धुंध में लिपटी हुई उम्रे-रवाँ*
सिर्फ इक लम्हा जिसे ढूँढ़ा तो हो, पाया न हो

आख़िरी चेहरा समझकर ज़ह्न में रख लो मुझे
क्या ख़बर फिर इस ज़मीं पर आदमी पैदा न हो।

1-कुश्तो-खूँ*--मार-काट
2- जिस्मों-जाँ*--शरीर और आत्मा
3-कज-बहसी*--अनुचित वाद-विवाद
4-उम्रे-रवाँ*--गुज़रती उम्र


"नाव बहाकर पानी में, मत काग़ज़ की तौक़ीर* बहा"

(112)

सोज़े-दरूँ* से परबत पिघले, बस्ती-बस्ती नीर बहा
मेरी तो औक़ात ही क्या है, सैले-बला में 'मीर' बहा

तेज़ हवा, तूफ़ानी बारिश, बरगद धरती छोड़ गए
अब के इस तूफ़ाने-गज़ब में कैसा-कैसा वीर बहा

हिज्र की रूत में बाल बिखेरे मैं भी घूमूँ, तू भी अब
तन्हा बैठ के आँसू-आँसू काजल की तहरीर बहा

सागर-तट पर बैठ के पहरों, मिलने वाली बात कहाँ
लाख हवा की लहरों पर आवाज़ बहा, तस्वीर बहा

नादाँ बालक! तू क्या जाने मसरफ़* है किस चीज़ का क्या
नाव बहाकर पानी में, मत काग़ज़ की तौक़ीर* बहा

1-सोज़े-दरूँ*-- भीतर की ज्वाला
2-मसरफ़*--उपयोग
3-तौक़ीर*--सम्मान, महत्व