सोमवार, 1 अगस्त 2011

'सब गवाह हुए कातिलों के साथ'

(14)
रिश्ता ही मेरा क्या है अब इन रास्तों के साथ
उसको विदा कर तो दिया आँसुओं के साथ

अब फ़िक्र है कि कैसे यह दरिया उबूर* हो
कल किश्तियाँ बँधी थीं इन्हीं साहिलों के साथ

अब फ़र्श हैं हमारे, छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ

कैसा लिहाज़-पास, कहां की मुरव्वतें
जीना बहुत कठिन है,अब इन आदतों के साथ

बिस्तर हैं पास-पास मगर क़ुबर्ते* नहीं
हम घर में रह रहे हैं, अज़ब फ़ासलों के साथ

मैयत* को उठाके ठिकाने लगाइए
मौक़े के सब गवाह हुए कातिलों के साथ

1- उबूर*--तप
2- क़ुबर्ते*--निकटता
3-मैयत*---मृतक

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