शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

'सो रहा था बेख़बर'

(33)
सो रहा था बेख़बर, सोते में कैसे गया
चलके मैं दालान से ज़ीने में कैसे गया

पेड़ को भी शहर ने ही दिया, कोताह-क़द
पाम का ऊँचा शजर गमले में कैसे गया

पहले हैरत थी कि मुझ पर खुल गया तेरा तिलिस्म
अब मैं हैराँ हूँ, तेरे कब़्ज़े में कैसे गया

तेरे नाते उसने की मेरी पज़ीराई बहुत
यह सलीक़ा तेरे हमसाए में कैसे गया

उसकी मजलिस में रही यह गुफ़्तगू मौजूए-बहस
ख़ुश्क पत्ता मरकज़ी धारे में कैसे गया

थक गया ख़ाइफ़ हुआ, या छोड़ दी आवारगी
सबसे पहले आज मैं कमरे में कैसे गया

1- कोताह-क़द--बौना
2- पज़ीराई --आवभगत
3- मौजूए-बहस--चर्चा का विषय
4- ख़ाइफ़--भयभीत

'जिंदगी! मैंने कभी तुमसे ख़ुदा माँगा था'

(32)
हमने ता-उम्र भटकने का मज़ा माँगा था
घर से अपने जो कभी अपना पता माँगा था

अलकुहल हो कि हो गंगा का मुक़द्दस पानी
हमने हर जाम में जीने का नशा माँगा था

तुमने क्यों मुझसे तअल्लुक़ में वफ़ा चाही थी
मैंने क्यों तुमसे वफ़ाओं का सिला मांगा था

अपनी झोली में लिए बैठा हूँ पत्थर कितने
जिंदगी! मैंने कभी तुमसे ख़ुदा माँगा था

आग की दलदली धरती से गुज़रने के लिए
मुझसा नादान! कि सहारे का असा माँगा था

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

'हम भी थे कभी ज़िंदा-दिली में बहुत आगे'

(31)
आएंगे भँवर अबकी सदी मे बहुत,आगे
रहना है हमें, दीदावरी में बहुत आगे

मुमकिन कि हो इनमें तुम्हारा कोई अपना
अंबार है लाशों का नदी में बहुत आगे

मतलब हो तो बिक जाता हर शख़्स यहाँ का
यह शहर तो है पेशावरी में बहुत आगे

सजने लगा बाज़ार मुहल्ले का वहाँ भी
इक घर था, कुशादा-सा गली में बहुत आगे

ज़ख़्मों को भी हमने भी हंस हंस के सहा था
हम भी थे कभी ज़िंदा-दिली में बहुत आगे

'कब उड़ाएगा बादल बनकर मुझे'

(30)
ज़िब्ह* करने पड़े शहरे-बेदार* में
जब भी ख़्वाबों के जंगली कबूतर मुझे
अपने ही खून में सुबह लिथुड़ा मिला
खुशबुओं से भरा मेरा बिस्तर मुझे

मैं कि सर्जन की टेबिल पे रक्खा हुआ
सिर्फ़ इक जिस्म हूँ, तजरूबा-गाह* में
आज की रात गुज़रे तो ये चारागर
कल लगा देंगे फ़ाइल में लिखकर मुझे

अब भी हर घर के क़ालिख लगे ताक़ पर
मेरे बोसों की परछाइया सब्त* है
इक दिया हूँ मैं यादों भरी रात का
मत जलाओं हवाओं की ज़द पर मुझे

बीच मैदान में कबसे तन्हा खड़ा
सोचता हूँ बचाव का रस्ता कोई
और हद्दे नज़र तक है घेरे हुए
हर तरफ़ से ग़नीमों* का लश्कर मुझे

तुम ख़लाओं में बिखरी हुई धूल हो
धूल मिट्टी है धरती से बिछुड़ी हुई
किससे पूछूँ समुंदर की बादे-रवाँ
कब उड़ाएगा बादल बनकर मुझे

1- वध करना
2-जागा हुआ शहर
3-प्रयोगशाला
4-अंकित
5-दुश्मन
6-बहती हवा

बुधवार, 17 अगस्त 2011

'आज मेरे सीने में दर्द बन के जागा है'

(29)
एक पल तअल्लुक का वो भी सानिहा* जैसा
हर ख़ुशी थी ग़म जैसी, हर करम सज़ा जैसा

आज मेरे सीने में दर्द बन के जागा है
वो जो उसके होठों पर लफ़्ज़ था दुआ जैसा

आग में हूँ पानी वो, फिर भी हममें रिश्ता है
मैं कि सख़्त काफ़िर हूँ, वो कि है ख़ुदा जैसा

तयशुदा हिसों के लोग उम्र भर ना समझेंगे
रंग है महक जैसा, नक़श* है सदा* जैसा

जगमगाते शहरों की रौनकों के दीवानों
सायँ-सायँ करता है मुझमें इक ख़ला* जैसा

1- हादिसा
2-चित्र
3-स्वर
4-अंतरिक्ष