शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

'सो रहा था बेख़बर'

(33)
सो रहा था बेख़बर, सोते में कैसे गया
चलके मैं दालान से ज़ीने में कैसे गया

पेड़ को भी शहर ने ही दिया, कोताह-क़द
पाम का ऊँचा शजर गमले में कैसे गया

पहले हैरत थी कि मुझ पर खुल गया तेरा तिलिस्म
अब मैं हैराँ हूँ, तेरे कब़्ज़े में कैसे गया

तेरे नाते उसने की मेरी पज़ीराई बहुत
यह सलीक़ा तेरे हमसाए में कैसे गया

उसकी मजलिस में रही यह गुफ़्तगू मौजूए-बहस
ख़ुश्क पत्ता मरकज़ी धारे में कैसे गया

थक गया ख़ाइफ़ हुआ, या छोड़ दी आवारगी
सबसे पहले आज मैं कमरे में कैसे गया

1- कोताह-क़द--बौना
2- पज़ीराई --आवभगत
3- मौजूए-बहस--चर्चा का विषय
4- ख़ाइफ़--भयभीत

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