रविवार, 21 अगस्त 2011

'कल के बाज़ार में जिसकी क़ीमत न हो'

(34)
कल के बाज़ार में जिसकी क़ीमत न हो
ऐसा अंदोख़्ता* क्या बचाए कोई
ख़ुद को अब इस तरह ख़र्च करता हूँ मैं
जैसे माले-गनीमत* लुटाए कोई

तेज़ आँधी सही, घुप अंधेरा सही
फिर भी अपने दरीचे खुले छोड़ दो
घर से बिछुड़ा हुआ, घर को भूला हुआ
क्या ख़बर है यहाँ आ ही जाए कोई

नर्म मख़मल-सा जब तक मैं फैला रहा
मुझको पैरों तले ख़ूब रौंदा गया
अब की शीशा हूँ राहों में बिखरा हुआ
पा-बरहना* यहाँ, अब न आए कोई

नीचे धरती की चादर सुलगती हुई
सर पे सूरज का गोला दहकता हुआ
दरमियाँ में ख़ला* कोई बादल न छत
तुम ही सोचों कहाँ सर छिपाए कोई

हर बुने-मू* से दिन-रात बहता हुआ
जून के तुंद सूरज का सैचाल-सा*
किस बुलंदी पे जाकर हवा मर गई
अब कहाँ जिस्म अपना सुखाए कोई

1- अंदोख़्ता--जमा-पूंजी
2- माले-गनीमत*--लूट का माल
3- पा-बरहना*--नंगे पाँव
4- ख़ला*--खाली जगह
5- बुने-मू*--बाल की जड़
6- सैचाल--तरलता

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