बुधवार, 5 सितंबर 2012

अब के भी यह रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री

(104)

अब के भी यह रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री
गुज़री है,  मगर नीर बहाते हुए गुज़री

जीने का ये अंदाज़ तो देखो कि मेरी उम्र
जीने के लिए ख़ुद को मनाते हुए गुज़री

काजल-सा बरसता था फ़िज़ा से कि मेरी रात
बे-तेल के दीपक को जलाते हुए गुज़री

गुज़री भी तो किस क़हर से गुज़री है ये पुरवा
सोए हुए ज़ख़्मों को जगाते हुए गुज़री

तरबीर ना मिल पाई तो क्या दुख कि शबे-ग़म
कुछ ख़्वाब तो पलकों पे सजाते हुए गुज़री

नाकाम ये कोशिश थी मगर हिज़्र की हर शब
खुद को, कभी दुनिया को भुलाते हुए गुज़री
1- तरबीर--स्वप्न-फल

अश्क पलकों पे उठा ले आऊँ

(103)
अश्क पलकों पे उठा ले आऊँ
आँख उर्यां* है, क़बा* ले आऊँ

अब तो इस दश्त में दम घुटता है
शहर से उसके, हवा ले आऊँ

तुम भी अब ताज़ा सनम को पूजो
मैं भी इक और ख़ुदा ले आऊँ

वो भी इस रात अकेला होगा
अब उसे घर से बुला ले आऊँ

लुट चुका सारा असासा* दिल का
जान ही अब तो बचा ले आऊँ

रोज़ इस सोच में सूरज निकला
धूप से पहले घटा ले आऊँ
1- उर्यां*--नग्न
2- क़बा*--वस्त्र
3- असासा*--पूँजी

लुटा जो नगर था वफ़ा नाम का

(102)
लुटा जो नगर था वफ़ा नाम का
निशाँ तक ना बाक़ी रहा नाम का

भरी दोपहर में कहाँ गुम हुआ
यहाँ था जो इक बुत ख़ुदा नाम का

हवा ले उड़ी, कुछ नमी खा गई
वरक़ था कि बंजर हुआ नाम का

कहाँ तन से दस्ते-दुआ* कट गिरे
सहारा भी टूटा जो था नाम का

रगों में नहीं कुछ वजुज़* कर्ब* के
कहाँ है वो पल इन्तहा नाम का

1-दस्ते-दुआ*-प्रार्थना करने वाले हाथ
2- वजुज़*-सिवाय
3- कर्ब*-पीड़ा

रविवार, 2 सितंबर 2012

चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया


(101)
आगे पहुँची जल की धारा बजरा पीछे छूट गया
रस्ता छोड़ सवारों को मैं प्यादा पीछे छूट गया

ये बस्ती कौन-सी बस्ती है, आके कहाँ बस ठहर गई
चाहा था जिस धाम रुकें, वो क़स्बा पीछे छूट गया

आगे-आगे लंबी डगर है रेत-भरे मैदानों की
जिस तट इक पल ठहरे थे, वह दरिया पीछे छूट गया

बैठे हैं सैलानी सारे,पतझड़ है विश्वासों का
मंदिर छूटा, गिरजा छूटा, काबा पीछे छूट गया

कितने कुछ थे जीवन-साथी, कितने कुछ थे लहू-शरीक
चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया