शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

"मीर" कोई था "मीरा" कोई लेकिन उनकी बात अलग

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छोड़ो मोह! यहाँ तो मन को बेकल बनना पड़ता है
मस्तों के मयख़ाने को भी मक़तल बनना पड़ता है

सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है

जलते दिए को लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी-कैसी झेल के बिपता, काजल बनना पड़ता है

"मीर" कोई था "मीरा" कोई लेकिन  उनकी बात अलग
इश्क़ न करना, इश्क़ में प्यारे पागल बनना पड़ता है

शहर नहीं थे, गाँव से पहले जंगल  बनना पड़ता है

"निश्तर" साहब! हमसे पूछो, हमने ज़र्बे झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है

मक़तल--वधशाला
ज़र्बे - चोटें

"मेरे लहू की आग" इस ग़ज़ल शीर्षक की ये आखिरी ग़ज़ल थी।

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