बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

'रूख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था'

(77)
रूख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था
हम हवा के साथ चलते थे, मगर ऐसा भी था

लौट आती थीं कई साबिक़* पतों की चिट्ठियाँ
घर बदल देते थे बाशिंदे, नगर ऐसा भी था

वो किसी का भी न था लेकिन था सबका मोतबर*
कोई क्या जाने कि उसमें इक हुनर ऐसा भी था

तोलता था इक को इक अशयाए-मशरफ़*  की तरह
दोस्ती थी और अंदाज़े-नज़र ऐसा भी था

पाँव आइंदा*  की जानिब, सर गुजिश्ता*  की तरफ़
यों भी चलते थे मुसाफिर, इक सफ़र ऐसा भी था

हर नई रूत में बदल जाती थी तख़्ती नाम की
जिसको हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था

1-पुराने
2-विश्वसनीय
3-उपयोग की वस्तुएं
4-भविष्य
5-अतीत

'वो रेगिस्तान ले जाते तो सागर छोड़ जाते थे'

(76)
मुसाफ़िर-ख़ाना-ए-इम्काँ* में बिस्तर छोड़ जाते थे
वो हम थे जो चिरागों को मुनव्वर* छोड़ जाते थे

गरज़तें-गूँजते आते थे जो सुनसान सहरा में
वही बादल अजब वीरान मंज़र छोड़ जाते थे

न थी मालूम भूखी नस्ल की मजबूरियाँ उनको
फटी चादर वो तलवारों के ऊपर छोड़ जाते थे

नहीं कुछ एतबार अब क़ुफ़्लों -दरबाँ* का,कभी हम भी
पड़ोसी के भरोसे पर खुला घर छोड़ जाते थे

कभी आँधी का ख़दशा*  था, कभी तूफाँ का अंदेशा
वो रेगिस्तान ले जाते तो सागर छोड़ जाते थे

1-संभावनाओं का यात्री घर
2- रोशन
3-ताले और चौकीदार
4-आशंका

'सामने परबत भी हैं, कुछ लोग कहते आए थे'

(75)
सामने परबत भी हैं, कुछ लोग कहते आए थे
हम तो बस हमवार मैदानों में बहते आए थे

अब की बरखा कर गई मिस्सार तो हैरत ही क्या
यो दरो-दीवार तो बरसों से ढहते आए थे

आख़िर-आख़िर अब वही मेआर* ठहरा जीस्त का
लोग जिस अंदाज़ को मायूब कहते आए थे

कौन जाने किसलिए चूल्हे का ईंधन बन गए
ये शजर*तो मौसमों की मार सहते आए थे

अब के क्या अदबार* आया, ख़्वाब तक गहना गए
चाँद, सूरज तो हमेशा से ही गहते आए थे
1-स्तर
2-दूषित
3-अशुद्ध
4-संकट, विपदा

'वो जो पल ख़ाली हुआ, मर कर बसर मेरा हुआ'

(74)
इस तरह हर मरहला* ना-मोतबर*मेरा हुआ
पाँव गोया दूसरों के थे, सफ़र मेरा हुआ

उसका सन्नाटा ग़ज़ब था, इसका हंगामा ग़ज़ब
दश्त कब मेरा हुआ था, कब नगर मेरा हुआ

यों लगा जैसे मैं आवाज़ों के इक जंगल में हूँ
जब कभी शहरे-ख़मोशाँ*से गुज़र मेरा हुआ

कुछ तो दो शहरे-हवस में दाद इस किरदार*की
कल जो था सफ़्फ़ाक दुश्मन, चारागर*मेरा हुआ

दोस्तों! औकात-बेकरारी को फुर्सत मत कहो
वो जो पल ख़ाली हुआ, मरकर बसर मेरा हुआ

1-मंज़िल के लिए कूच
2-अविश्वसनिय
3-कब्रिस्तान
4-चरित्र
5-उपचारक

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

'देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ'

(73)
देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ
हासिल न हुआ सैरे-मुकर्रर* के सिवा कुछ

किस हाल में उस शोख़ से वाबस्ता हुआ दिल
सौगात में देने को नहीं सर के सिवा कुछ

क्यों गर्द-सी उड़ती है ये हर लम्हा रगों में
क्या जिस्म के अंदर नहीं सरसर* के सिवा कुछ

फूलों से बदन डूबते देखे गए हर बार
इस बहर* में तैरा नहीं पत्थर के सिवा कुछ

करते भी तलब क्या कि यहाँ दस्ते अता* में
देने को न था जिन्से-मयस्सर* के सिवा कुछ

1- सैरे-मुकर्रर*--एक ही स्थान पर दुबारा
2- उपहार
3-सरसर*--आँधी
4-बहर*--सागर
5-दस्ते अता*--दया का हाथ
6-जिन्से-मयस्सर*--पहले से प्राप्त वस्तु

'दुआ पढ़कर मेरी माँ जब मेरे सीने पे दम करती'

(72)
शज़र* आँगन का जब सूरज से लरज़ा* होने लगता था
कोई साया मेरे घर का निगहबाँ* होने लगता था

दुआ पढ़कर मेरी माँ जब मेरे सीने पे दम करती
अक़ीदों* के अंधेरे में चिरागाँ होने लगता था

पुराने पेड़ फिर ताज़ा फलों से लदने लगते थे
गए मौसम से दिल जब भी गुरेज़ाँ* होने लगता था

चुनौती देने लगती थी नई दुशवारियाँ मुझको
सफ़र जब ज़िंदगी का मुझ पे आसाँ होने लगता था

बताऊँ क्या कि कैसा बा-मुरव्वत शख़्स था वो भी
मुझे इलज़ाम देकर ख़ुद पशेमाँ* होने लगता था

1-शज़र*--वृक्ष
2-लरज़ा*--कंपित
3-निगहबाँ*--रक्षक
4-गुरेज़ाँ*--आस्थाओं
5-बा-मुरव्वत--उदासीन
6-पशेमाँ*--लज्जित