बुधवार, 6 जून 2012

आदमी को बेवतन, घर को जज़ीरा मान लूँ

(98)
आदमी को बेवतन, घर को जज़ीरा मान लूँ
क्यों न अब ख़ुद को भी इस मंज़र का हिस्सा मान लूँ

क़हक़हों की गूँज से लरज़ा न दूँ दीवारों-दर
क्यों न हर ज़हमत* को अब पल भर का क़िस्सा मान लूँ

निस्बतें* जो कल बनेंगी उनका अंदाज़ा करूँ
टूटते रिश्तों को मौसम का तक़ाज़ा मान लूँ

वो ही तेवर के नियाज़ी थे, वही अंदाज़ों-रंग
क्यों न हर चेहरे को अब तेरा ही चेहरा मान लूँ

हिल गई बुनियाद लेकिन बामो-दर टूटे नहीं
वक़्त से पहले ही क्यों दिल को शकिस्ता* मान लूँ

क्या ख़बर वो बस्तियाँ, वो लोग अब बाक़ी न हों
रास्ते से लौट जाऊँ दिल का कहना मान लूँ
1- कष्ट
2-रिश्ते
3-खंडित

तू मेरी बेहिसाब माँ

(97)
वही हूँ मैं, वही ज़मीं, वही है माहताब माँ
बस एक गुल बहिश्त* का हुआ है ख़्वाब-ख़्वाब मां

मेरी नज़र में आज भी खिली है कहकशाँ-सी* तू
मैं यक़-क़दह* लहू तेरा, तू मेरी बेहिसाब माँ

न सोचना कि हक़ तेरा अदा न मुझसे हो सका
कि तेरे-मेरे दरमियाँ न था कोई हिसाब माँ

सफ़ेद हो चला हूँ अब तेरे कफ़न के रंग-सा
कभी उठा के देख तो यह क़ब्र की नक़ाब माँ

रखा तो होगा जेब में उसी तरह क़लम तेरा 
कभी तो भेज ख़त मुझे, कभी तो भेज जवाब माँ

1- स्वर्ग
2- आकाश गंगा
3- प्याला भर