बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

'सामने परबत भी हैं, कुछ लोग कहते आए थे'

(75)
सामने परबत भी हैं, कुछ लोग कहते आए थे
हम तो बस हमवार मैदानों में बहते आए थे

अब की बरखा कर गई मिस्सार तो हैरत ही क्या
यो दरो-दीवार तो बरसों से ढहते आए थे

आख़िर-आख़िर अब वही मेआर* ठहरा जीस्त का
लोग जिस अंदाज़ को मायूब कहते आए थे

कौन जाने किसलिए चूल्हे का ईंधन बन गए
ये शजर*तो मौसमों की मार सहते आए थे

अब के क्या अदबार* आया, ख़्वाब तक गहना गए
चाँद, सूरज तो हमेशा से ही गहते आए थे
1-स्तर
2-दूषित
3-अशुद्ध
4-संकट, विपदा

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