गुरुवार, 25 अगस्त 2011

'मेघ नगर से तन्हा लौटे, खोदी नहर अकेले में'

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मेघ नगर से तन्हा लौटे, खोदी नहर अकेले में
बीच सभा में जंगल देखा, पाया शहर अकेले में

वो क्यों रूकते, साथ था उनके ऊँचे रुतबे वाला इक
इतनी छोटी बात ने लेकिन ढाया क़हर अकेले में

लोग है गीले असर जैसे, हम हैं सिपाही-चूस अजब
सात समुंदर विष के पीकर, उगलें ज़हर अकेले में

उम्र में अपनी हम भी पाते इक पल दुनिया दारी का
बैठ के अक्सर सोचा हमनें दो-दो पहर अकेले में

झूठे-सच्चे सारे माज़ीघात लगाए बैठे हैं
टूटे-फूटे घर के अंदर, अब मत ठहर अकेले में

एक तिलिस्मी डोर में लिपटी चलती-फिरती भीड़ लगी
ताश के बिखरे पत्तों-जैसा, देखा दहर अकेले में

जीवन साथी सामने सबके स्वांग भरे हमदर्दी का
रात में लेकिन हमसे माँगे अपने 'मेहर' अकेले में

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