गुरुवार, 18 अगस्त 2011

'कब उड़ाएगा बादल बनकर मुझे'

(30)
ज़िब्ह* करने पड़े शहरे-बेदार* में
जब भी ख़्वाबों के जंगली कबूतर मुझे
अपने ही खून में सुबह लिथुड़ा मिला
खुशबुओं से भरा मेरा बिस्तर मुझे

मैं कि सर्जन की टेबिल पे रक्खा हुआ
सिर्फ़ इक जिस्म हूँ, तजरूबा-गाह* में
आज की रात गुज़रे तो ये चारागर
कल लगा देंगे फ़ाइल में लिखकर मुझे

अब भी हर घर के क़ालिख लगे ताक़ पर
मेरे बोसों की परछाइया सब्त* है
इक दिया हूँ मैं यादों भरी रात का
मत जलाओं हवाओं की ज़द पर मुझे

बीच मैदान में कबसे तन्हा खड़ा
सोचता हूँ बचाव का रस्ता कोई
और हद्दे नज़र तक है घेरे हुए
हर तरफ़ से ग़नीमों* का लश्कर मुझे

तुम ख़लाओं में बिखरी हुई धूल हो
धूल मिट्टी है धरती से बिछुड़ी हुई
किससे पूछूँ समुंदर की बादे-रवाँ
कब उड़ाएगा बादल बनकर मुझे

1- वध करना
2-जागा हुआ शहर
3-प्रयोगशाला
4-अंकित
5-दुश्मन
6-बहती हवा

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