बुधवार, 3 अगस्त 2011

'मुक़द्दर का लिखा हूँ मैं'

(17)
अपने ही खेत की मिट्टी से जुदा हूँ मैं तो
इक शरारा हूँ कि पत्थर से उगा हूँ मैं तो

मेरा क्या है, कोई देखे कि न देखे मुझको
सुबह के डूबते तारे की ज़ियां* हूँ मैं तो

अब यह सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद
सिर्फ़ इक रात की लज़्ज़त का सिला* हूँ मैं तो

वो जो शोलों से जले उनका मुदावा* है यहाँ
मेरा क्या ज़िक्र कि शबनम से जला हूँ मैं तो

तुम जो चाहो भी तो फिर सुन न सकोगे मुझको
दूर जाते हुए क़दमों की सदा हूँ मैं तो

कौन रोकेगा तुझे दिन की दहकती हुई धूप
बर्फ़ के ढेर पे चुपचाप खड़ा हूँ मैं तो

लाख मोहमल* सही पर कैसे मिटाएगी मुझे
जिन्दगी! तेरे मुक़द्दर का लिखा हूँ मैं तो

1- ज़ियां--रोशनी
2- सिला*--परिणाम
3- मुदावा*--उपचार
4- मोहमल*--अर्थहीन

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