मंगलवार, 13 सितंबर 2011

'पर्दा उठना था कि....'

(53)
पर्दा उठना था कि हिद्दत* धूप की मजर में थी
हम थे और उम्मीद की बेचारगी* मंज़र में थी

अपनी ख़स्ता चाहतें जब लेके हम रूख़्सत हुए
ख़ुश्क पत्तों से हवा की दोस्ती मंज़र में थी

टूटकर क़ौसे-क़ज़ह* से क़हक़हा करते थे रंग
इस उफ़ुक़* से उस उफ़ुक़ तक बेबसी मंज़र में थी

बुझ रहा था दिन की पेशानी पे सूरज का जलाल
तीरगी* के बीच कुछ-कुछ रोशनी मंज़र में थी

बह रही थी दूध-सी इक शय जटाओं से मेरी
रात पस-मंज़र* की सारी चाँदनी मंज़र में थी

1- हिद्दत*--गर्मी
2- बेचारगी*--बेबसी
3- क़ौसे-क़ज़ह*--इंद्र धनुष
4- उफ़ुक़*--क्षितिज
5- तीरगी*--अंधकार
6- पस-मंज़र*--पृष्ठभूमि

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