सोमवार, 26 सितंबर 2011

'दहक रहा था मगर बेज़बान मुझ-सा था'

(58)
दहक रहा था मगर बेज़बान मुझ-सा था
कि रात सर पे मेरे आसमान मुझ-सा था

सभी अज़ीज़ थे उसके मगर नहीं था वही
वो एक शख़्स कि बे-ख़नादान मुझ-सा था

छतों से चिपकी हुई बेसदा अबाबीलें
अँधेरी रात में ख़ाली मकान मुझ-सा था

लहू में काई जमी थी मगर बुरा न लगा
मेरे सिवा भी कोई ख़ुश-गुमान मुझ-सा था

कटी-फटी सी जमीने, झुके-झुके से शजर
क़रीब जाके जो देखा, जहान मुझ-सा था

पसीना उसका न टपका तेरे लहू पर कहीं
वफ़ा की राह में वो भी जवान मुझ-सा था

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