गुरुवार, 22 सितंबर 2011

'रोज़ बदलते मौसम जैसा ग़ैर-यक़ीनी यानी ख़त'

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रोज़ बदलते मौसम जैसा ग़ैर-यक़ीनी यानी ख़त
आख़िर लिखना भूल गई, वो हर दिन लिखने वाली ख़त

इल्म* नहीं है शायद उसको मैं हूँ एहद् सवालों का
आनेवाली रूत ने भेजा मेरे नाम जवाबी ख़त

हाथ से मेरे छूट गई तब, क़ौसे-कुज़ह की धारी इक
वापस जाते वक़्त का मंज़र उसकी पुश्त का वस्ती* ख़त

अव्वल-अव्वल पुर रहते थे लाख निजी तफ़सीलों से
रफ़्ता-रफ़्ता खो बैठे फिर अगली जैसे दराज़ी ख़त

पढ़ते-पढ़ते पी जाती थीं, आँखें ख़त के लफ्ज़ों को
आज जो देखा चाट रहे थे अपनी आप सियाही ख़त

उसके मेरी क़ौले-क़सम* पर देख गवाही देते हैं
राख में आतिश-दानों की अंजाम-रसीदा* दस्ती* ख़त

1- इल्म*--ज्ञान
2- वस्ती* --इंद्र धनुष
3- दरमियानी
4-विस्तार
5-परिणाम को पहुँचे हुए
6-पत्रवाहक द्वारा भेजे गए

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