रविवार, 18 मार्च 2012

'जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया'


(91)
जागती आँखें देख के मेरी वापस सपना चला गया
रेत नहाने वाले पंछी सावन सूखा चला गया

भीगी घास पे गुमसुम बैठा सोच रहा हूँ शाम-ढले
जेठ की तपती गर्म हवा-सा जीवन गुज़रा, चला गया

मेरे भेस में उसने पाया मेरे जैसा और कोई
वो मुझसे मिलने आया था, तनहा-तनहा चला गया

ख़ौफ-ज़दा थे लोग, न निकले देखने करतब साँपों का
आज सपेरा बस्ती-बस्ती बीन बजाता चला गया

होना और न होना मेरा दोनों ही मशकूक* हुए
उसके रहते अपने ऊपर था जो भरोसा चला गया

कैसे उसको छत पर अपनी रोक के रखना मुमकिन था
वो इक टुकड़ा बादल का था, आया, बरसा, चला गया

1-मशकूक--संदिग्ध

1 टिप्पणी:

  1. भीगी घास पे गुमसुम बैठा सोच रहा हूँ शाम-ढले
    जेठ की तपती गर्म हवा-सा जीवन गुज़रा, चला गया


    कैसे उसको छत पर अपनी रोक के रखना मुमकिन था
    वो इक टुकड़ा बादल का था, आया, बरसा, चला गया

    जवाब नहीं निश्तर साहब का........बेहतरीन कलाम है ...वाह ।

    जवाब देंहटाएं