बुधवार, 21 मार्च 2012

'घर के रोशनदानों में अब काले पर्दे लटका दे'

(95)

घर के रोशनदानों में अब काले पर्दे लटका दे
रातों के मटियालेपन को थोड़ा और अँधेरा दे

दिन में सपने देखने वाले रस्ता-रस्ता बिखरे हैं
प्यासे दिल को दे न तमन्ना, दे तो साथ वसीला दे

शहर से जब भी लौट के आऊँ, देखूँ, सोचूँ, हैरत हो
सीधा-सादा बरगद अब भी धूप सहे और साया दे

लौटा तो अख़बार पुराना, बोला मेरी तलावत* कर
कमरे की दीवार का धब्बा, चीख़ा मुझको चेहरा दे

शहर की छीना-झपटी में सब अपने लोग मुक़ाबिल हैं
आलम अफ़रा-तफ़री का है, कौन किसी को मौक़ा दे

अक़्लो-हुनर* का मोल नहीं है, बस्ती में बंजारों की
मुझसे मेरी दानिश ले ले, लेकिन मौला पैसा दे

1- तलावत--अध्ययन
2- अक़्लो-हुनर--बुद्धि


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