गुरुवार, 8 सितंबर 2011

'कर चुकी आँख बहुत खून को पानी, साहब'

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लोग हिज़यान* को देते हैं मआनी, साहब
रास आई न हमें सादा-बयानी, साहब

रास्ता भूल गए लोग घने जंगल में
किसने ये दिन में सुनाई है कहानी, साहब

सर पे सूरज है मगर ढूँढ़ रहे हैं अब भी
हम क़यामत में क़यामत की निशानी, साहब

आओ अब धूप में रूमाल सुखा लें अपने
कर चुकी आँख बहुत खून को पानी, साहब

अगले मौसम में बहुत फूल खिले थे, अब क्या
बंद भी कीजिए मरसिया-ख़्वानी*, साहब

जानते हैं कि नहीं जानते कुछ भी यानी
ख़ल इक हम पे हुई हेच-मदानी*, साहब

1- हिज़यान*-- उन्माद
2- मरसिया-ख़्वानी*--शोक करना
3- हेच-मदानी*--खुद को निम्न समझना

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