शनिवार, 10 सितंबर 2011

'दिल को झिझक, नज़र को हया* दे सकेंगे क्या'

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दिल को झिझक, नज़र को हया* दे सकेंगे क्या
हम इस बरहनगी* को क़वा* दे सकेंगे क्या

इस दोपहर में राहते-अय्यामे-गुल* कहाँ
सोचो ये बर्गे-ख़ुश्क* हवा दे सकेंगे क्या

दिल बिन बियाही माँ की दुखी मामला-सा चुप
हम ज़िंदगी को प्यार भला दे सकेंगे क्या

हर शब वही डरावने ख़्वाबों का सिलिसला
सो भी गए तो ख़्वाब मज़ा दे सकेंगे क्या

बाक़ी है अपने पास बस इक लफ़्ज़ 'अलविदा'
आती रूतों को इसके सिवा दे सकेंगे क्या

1- हया*--लज्जा
2- बरहनगी*--नग्नता
3- क़वा*--कुर्ता
4- राहते-अय्यामे-गुल* --बसंत ऋतु का सुख
5- बर्गे-ख़ुश्क*--सूखे पत्ते

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