सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

'ज़मीं-ज़मीं गुनाह है सजे हुए गुलाब से'

(81)
ज़मीं-ज़मीं गुनाह है सजे हुए गुलाब से
हज़ार बार उम्मतें* गुज़र चुकीं अज़ाब से

ये दिल में था कि आज शब बिताएँ अपने साथ हम
निकल-निकल के आ गई इबारतें किताब से

गुज़र रहा हूँ तिशना-लब* मैं ख़्वाब-ज़ारे जीस्त* से
मुझी में हैं बिछे हुए क़दम-क़दम सराब* से

मकाँ वहीं हैं शहर में, मगर मकीं* नहीं हैं वो
किसे ख़बर कहाँ गए, वो ख़ुश-बदन गुलाब से

लगा कि जिस्मों-रूह में भड़क उठी है आग फिर
जनम-जनम कि तिश्नगी बुझी कहाँ शराब से

1- उम्मतें*--राष्ट्र
2- तिशना-लब*--प्यासा
3- ख़्वाब-ज़ारे जीस्त* --जीवन के स्वप्नलोक से
4- सराब* --बादल
5- मकीं*--मकानों के निवासी

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