शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

'चाय की पियाली में, उसकें होंठ रक्खे थे'

(26)
रात एक पिक्चर में, शाम एक होटल में, बस यही बसीले थे
मेज़ के किनारे पर, चाय की पियाली में, उसकें होंठ रक्खे थे

मैने तुमको रक्खा था, बक्स में सदाओं के, तह-ब-तह हिफ़ाजत से
रात मेरे घर में तुम इक महीने फ़ीते पर गीत बनके उभरे थे

दस्तख़त नहीं बाक़ी, बस हरुफ़ टाइप के क़ाग़ज़ों में ज़िंदा हैं
याद भी नहीं आता, प्यार के ये ख़त जाने, किसने किसको लिक्खे थे

दर्द-खानादारी का, हमको क्या पता क्या है, हम जवान शहरों के
होटलों में रहते थे, हॉट-डाग खाते थे, काकटेल पीते थे

आज का भी दिन गुज़रा, डाकतार वालों की कल से कामबंदी है
जाने किन उमीदों पर हमने रात काटी थी, गिन के पल गुजारे थे।

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