(86)
बस्ती-बस्ती देखता था कर्बला होते हुए
कितना बे-परवा था वो सबका ख़ुदा होते हुए
मैं कि हूँ हालात के तूफाँ में तिनके की तरह
मेरी मजबूरी समझ मुझसे ख़फ़ा होते हुए
ये भी क्या हर ज़ुल्म सह लेना सबब पूछे बग़ैर
जु्र्म का इक़बाल करना बे-ख़ता होते हुए
हम भी अपने तन की उर्मानी* पे थे नाज़ाँ बहुत
वो भी शर्माया न अबके बेक़बा* होते हुए
वो अज़ब इक शख़्स है, आसान भी दुश्वार भी
देर कब लगती है उसको मस्अला होते हुए
एक ही झोंका हवा का दोस्त भी, दुश्मन भी है
सोचता था हर नया पत्ता हरा भी होते हुए
1-उर्मानी--नग्नता
2-बेक़बा- निर्वस्त्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें