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भूलकर भी अब न उस बुत को सरापा* सोचना
भूलकर भी अब न उस बुत को सरापा* सोचना
आइने के सामने अपना ही चेहरा सोचना
गुफ़्तगू में उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ बोलना
और तनहाई में इस ज़ालिम का रूतबा सोचना
रू-ब-रू जब तक रहें अपनों से रहना बदगुमाँ
जब बिछुड़ जाएँ तो अपनों को प्यारा सोचना
तिश्ना-लब* सोना मगर ख़्वाबों में दरिया देखना
दरमियाँ सागर के रहना, खुद को प्यासा सोचना
आदमी और अंजुमन* के बीच निस्बत* ढूँढ़ना
भीड़ में ख़ामोश रहना, घर में क्या-क्या सोचना
बैठ जाना बूँद पड़ते ही बताशे की तरह
फिर भी अपने आपको पत्थर का टुकड़ा सोचना
1- सर से पाँव तक,छवि
2-प्यासा
3-सभा
4-संबंध
वाह हर शेर बेहतरीन और मुकम्मल।
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