बुधवार, 7 दिसंबर 2011

आख़िरी गाडी़ गुज़रने की सदा भी आ गई

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आख़िरी गाडी़ गुज़ने की सदा भी आ गई
सो रहो बेख़्वाब आँखों! रात आधी आ गई

ज़िंदगी से सीख लीं हमने भी दुनियादारियाँ
रफ़्ता-रफ़्ता तुममें भी मौक़ापरस्ती आ गई

सादा-लौही*, देन जो क़स्बे भी थी रूख़सत हुई
शहर आना था कि उसमें होशियारी आ गई

हम मिले थे जाने क्या आफ़त-ज़दा रूहें लिए
गुफ़्तगू औरों की थी, आपस में तल्ख़ी* आ गई

आज अपने गाँव की हद पर पहुँचते हैं तो हम
पूछते हैं हमसफर ये कौन सी बस्ती आ गई

तर्क क्यों करते नहीं हो, कारोबारे-आरज़ू
'ख़ानक़ाही' अब तो बालों पे सफेदी आ गई

1-- सादा-लौही--सरलता
2--तल्ख़ी--कड़वाहट

3 टिप्‍पणियां:

  1. खुबसूरत ग़ज़ल..........'गुजरने' होना चाहिए था |

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