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आख़िरी गाडी़ गुज़रने की सदा भी आ गई
आख़िरी गाडी़ गुज़रने की सदा भी आ गई
सो रहो बेख़्वाब आँखों! रात आधी आ गई
ज़िंदगी से सीख लीं हमने भी दुनियादारियाँ
रफ़्ता-रफ़्ता तुममें भी मौक़ापरस्ती आ गई
सादा-लौही*, देन जो क़स्बे भी थी रूख़सत हुई
शहर आना था कि उसमें होशियारी आ गई
हम मिले थे जाने क्या आफ़त-ज़दा रूहें लिए
गुफ़्तगू औरों की थी, आपस में तल्ख़ी* आ गई
आज अपने गाँव की हद पर पहुँचते हैं तो हम
पूछते हैं हमसफर ये कौन सी बस्ती आ गई
तर्क क्यों करते नहीं हो, कारोबारे-आरज़ू
'ख़ानक़ाही' अब तो बालों पे सफेदी आ गई
1-- सादा-लौही--सरलता
2--तल्ख़ी--कड़वाहट
खुबसूरत ग़ज़ल..........'गुजरने' होना चाहिए था |
जवाब देंहटाएंBilkul thek kaha...Shukriya..
जवाब देंहटाएंhello
जवाब देंहटाएंGood evening sir
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