शनिवार, 10 सितंबर 2011

'रूह के ज़ख़्मों से छनती रोशनी अच्छी लगी'

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रूह के ज़ख़्मों से छनती रोशनी अच्छी लगी
थी बहुत बे-दर्द लेकिन ज़िंदगी अच्छी लगी

कम से कम सीरत* तो उसकी मुझसे पोशीदा* रही
चार दिन के हमसफ़र की दोस्ती अच्छी लगी

क़ुमक़ुमों की जगमगाहट में बदन अच्छा लगा
बुझ गई बिजली तो छत पर चाँदनी अच्छी लगी

मुज़तरिब* होठों पे उसके तरबियत-कर्दा* हँसी
वहशतों के दरमियाँ शाइस्तगी* अच्छी लगी

उसको माचिस की ज़रूरत रात मुझ तक लाई थी
एक लम्हे की सही हम-सायगी अच्छी लगी

थी नज़र कुछ ख़ास ज़हनी हालतों पर मुन्हसिर*
एक ही सूरत कभी नाक़िस, कभी अच्छी लगी।

1- सीरत*--चरित्र
2- पोशीदा* --निहित
3- मुज़तरिब*--व्याकुल
4- तरबियत-कर्दा* --सधी हुई
5- शाइस्तगी*--सुघड़ता
6- मुन्हसिर*--निर्भर

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