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कहते है जिसको हाल के है बर बसर ख़राब
जंगल कभी ख़राब था, अब है नगर ख़राब
कूचे में आशिक़ी के तअफ़्फ़ुन* बला का है
इतनी कहाँ थी, पहले कोई रहगुज़र ख़राब
समझे थे ख़ुशगवार हैं दिल की ख़राबियाँ
अब दिल के साथ-साथ हुआ है जिगर ख़राब
बाहर भटक रहे थे तो बस्ती ख़राब थी
अब घर में आ गए तो लगता है घर ख़राब
हमसे ख़राब-हाल कहाँ जाके चैन पाएँ
दुनिया इधर ख़राब है, उक़वा* उधर ख़राब
वो दिन गए कि छानते फिरते थे दश्त-दश्त
लगने लगा है अब तो मियाँ हर सफ़र ख़राब
1- तअफ़्फ़ुन*--दुर्गंध
2- उक़वा*--परलोक
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