शनिवार, 10 सितंबर 2011

'अब न देगा किसी गिरते को सहारा कोई'

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यों बढ़ाता है यहाँ हौसला दिल का कोई
अब न देगा किसी गिरते को सहारा कोई

ग़मज़दा दिल लिए बैठे हैं कमानें अपनी
लुत्फ़ ये है कि नही ग़म का सरापा* कोई

शहर का शहर है यकसानी-ए-तामीर* में गुम
क्या किसी घर का रखे ध्यान में नक़्शा कोई

रोज़मर्रा की तरह यों तो गुज़री हर शब
हस्बे-मामूल* मगर सुब्ह न उठा कोई

मुझसे कहते हैं भड़कते हुए शोले मुझमें
यों मनाता है यहाँ मौसमे-सर्मा कोई

आज अख़बार ही देखा, न कहीं घर से गए
किस्सा-ए-सूरते-एहवाल* न समझा कोई

भेज मुझ तक भी किसी दुश्मने-जाँ को इक दिन
ज़िंदगी! मौत अब अपनी नहीं मरता कोई।

1- सरापा--आकार
2- यकसानी--तामीर*--समान ढंग के भवन
3- हस्बे-मामूल*--हर दिन की तरह
4- सूरते-एहवाल* --स्थिति की वास्तविकता

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