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फूल जो कल मुझमें खिलने थे, क़यासी* हो गए
अब यहाँ पतझड़ के मौसम, बारहमासी हो गए
रात तक था जिनको अपनी ताज़ाकरी का घमंड
सुबह का सूरज जो निकला लोग बासी हो गए
इस बरस फागुन में ऐसी बर्फ़ बरसी है कि बस
आत्माएँ सुन्न हुई, चेहरे कपासी हो गए
घर से बेघर कर गया कितनों को जबरे-रोज़गार*
सब पुराने हम-सबक* परदेसवासी हो गए
सिर्फ़ बाक़ी रह गया बे-लौस रिश्तों का फ़रेब
कुछ मुनाफ़िक* हम हुए, कुछ तुम सियासी हो गए
1- क़यासी*--काल्पनिक
2- जबरे-रोज़गार*--रोज़गार की मजबूरी
3- हम-सबक--सहपाठी
4-मुनाफ़िक*--पाखंडी
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