बुधवार, 27 जुलाई 2011

'मेरी जिन्दगी के रात-दिन'

(10)
तेज़-रौ पानी की तीखी धार पर बहते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए

अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों में फिर रहे है पैरहन बिखरे हुए

अब यह आलम है कि मेरी जिन्दगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए

अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकराँ है और मैं
मुद्दतें गुज़री हैं अपने आपको देखे हुए

किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है इन्हें
यह खिज़ाँ की शाम और जख़्मों के वन महके हुए

काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
जिन्दगी गुजरी है उस तलवार पर चलते हुए

1-पैरहन--वस्त्र
2-बहरे बेकराँ--असीम सागर

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