(11)
अनजाने हादिसात का खटका लगा रहा
अनजाने हादिसात का खटका लगा रहा
नींद आ रही थी रात मगर जागता रहा
वो सिरफिरी हवा थी आई गुज़र गई
इक फूल था, जो दिल की तरह कांपता रहा
मैं क्या था, शाखे-जर्द का इक बर्गे-खुश्क था
निकला जो आँधियों से तो शोलों में जा रहा
मेरा ही रूप था जो पसे-पर्दा-ए-वजूद*
नफ़रत से सारी उम्र मुझे देखता रहा
तेज आँधियों में गर्दे-सफ़र तक न बच सकी
मत पूछ, मुझसे अब मेरे दामन में क्या रहा
पानी के आर-पार निगाहें न जा सकीं
दरिया इश्क और भी तहे-दरिया छुपा रहा
1-अस्तित्व के आवरण तले
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें