बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

'वो रेगिस्तान ले जाते तो सागर छोड़ जाते थे'

(76)
मुसाफ़िर-ख़ाना-ए-इम्काँ* में बिस्तर छोड़ जाते थे
वो हम थे जो चिरागों को मुनव्वर* छोड़ जाते थे

गरज़तें-गूँजते आते थे जो सुनसान सहरा में
वही बादल अजब वीरान मंज़र छोड़ जाते थे

न थी मालूम भूखी नस्ल की मजबूरियाँ उनको
फटी चादर वो तलवारों के ऊपर छोड़ जाते थे

नहीं कुछ एतबार अब क़ुफ़्लों -दरबाँ* का,कभी हम भी
पड़ोसी के भरोसे पर खुला घर छोड़ जाते थे

कभी आँधी का ख़दशा*  था, कभी तूफाँ का अंदेशा
वो रेगिस्तान ले जाते तो सागर छोड़ जाते थे

1-संभावनाओं का यात्री घर
2- रोशन
3-ताले और चौकीदार
4-आशंका

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें