सोमवार, 26 सितंबर 2011

'हम लिए बैठे हैं गुज़रे हुए दिन की पहचान'


(61)
इश्क़ क्या शय हो? जमाने की हवा कैसी हो
किसको मालूम है, कल बज़ए-वफ़ा* कैसी हो

हम लिए बैठे हैं गुज़रे हुए दिन की पहचान
जाने कल भीड़ में उस बुत की क़बा* कैसी हो

लफ़्ज़ का किसको भरोसा कि ख़बर ये भी नहीं
कल मेरे लब से जो निकले वो नवा* कैसी हो

उम्र जब दे चुके गुज़रे हुए लम्हों को तलाक़
जाने उस वक़्त मेरे घर की फ़िजा कैसी हो

आज की शब के तअल्लुक से कर कल का क़यास*
सुबह तक उसकी रविश किसको पता कैसी हो

1- बज़ए-वफ़ा*--वफ़ा का ढ़ग
2- क़बा*---वस्त्र
3- नवा*--आवाज़
4- क़यास*--अनुमान

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