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चुप बाहर के दरवाज़े पर सच-ना सच का किस्सा अब
झूठ हलफ़नामे लिखने पर अफ़सोस नहीं होता अब
टेढ़ी-तिरछी बातें हरदम ज़हन में आती रहती है
पैंसिल से काग़ज़ पर भी सीधा ख़त* नहीं खिंचता अब
दुल्हन एक तलाक़-शुदा-सी अंदर घर के बैठी है
पूछूँ कितना बाक़ी है अर्सा उसकी इद्दत* का अब
कुछ अनदेखी आँखें हरदम जलती-बुझती रहती हैं
ख़ुद अपने दामन पर भी अपना ज़ोर नहीं चलता अब
अपने हों या और किसी के सारे दुख बेमानी हैं
पहलू-पहलू दर्द जगाकर दिल ये हक़ीक़त समझा अब
1-ख़त*--रेखा
2-इद्दत*--वह अवधि जो तलाक़ के बाद मुस्लिम औरत को कठोर पर्दे में व्यतीत करना पड़ता है
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