शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

'छत से उतरा साथी इक'



(65)
छत से उतरा साथी इक
मैं और नन्हा पंछी इक

सूरज निकला पाया क्या
गुमसुम रात की रानी इक

जीवन शहर दरिंदों का
याद अकेली नारी इक

सारे घर को खोले कौन
सत्तर ताले, चाबी इक

रोगी काया, बरखा रूत
तन पर भीगी कमली इक

ख़ुद में तुझको जोड़ूँ आ
मैं भी एक हूँ, तू भी इक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें