(29)
एक पल तअल्लुक का वो भी सानिहा* जैसा
हर ख़ुशी थी ग़म जैसी, हर करम सज़ा जैसा
आज मेरे सीने में दर्द बन के जागा है
वो जो उसके होठों पर लफ़्ज़ था दुआ जैसा
आग में हूँ पानी वो, फिर भी हममें रिश्ता है
मैं कि सख़्त काफ़िर हूँ, वो कि है ख़ुदा जैसा
तयशुदा हिसों के लोग उम्र भर ना समझेंगे
रंग है महक जैसा, नक़श* है सदा* जैसा
जगमगाते शहरों की रौनकों के दीवानों
सायँ-सायँ करता है मुझमें इक ख़ला* जैसा
1- हादिसा
2-चित्र
3-स्वर
4-अंतरिक्ष
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