सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

'अच्छे दिनों की आस में दीवारों-दर हैं चुप'

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सामान दिलदही* का न राहत घरों में है
दिन-रात का सफ़र है, सकूनत* घरों में है

दस्तक पे दोस्तों के भी खुलते नहीं हैं दर
हर वक़्त इक अजीब-सी दहशत घरों में है

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यों आज इतनी भीड़ इबादत-घरों में है

बुनियाद इख़्तलाफ़* की कुछ भी नहीं मगर
मौजूद बेसबब-सी रक़ाबत* घरों में है

अच्छे दिनों की आस में दीवारों-दर हैं चुप
सड़कों पे कहक़हे हैं, हक़ीक़त घरों में है

जंगल में जा बसेंगे अगर आफ़ियत मिले
अब तक यक़ीन था कि हिफ़ाज़त घरों में है

1- दिलदही* --मन-बहलाव
2- सकूनत*आवास
3- इख़्तलाफ़*--मतभेद
4- रक़ाबत*शत्रुता

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