सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

'ऐ जंगल की बेमानी चुप, शहरों के दीवाने शोर'

(68)
ऐ-जाँ! कब तक क़ता* न होता, झूठा-सच्चा साथ तेरा
कमज़ोर पतंग बारीक हुआ, बिलाख़िर छूटा साथ तेरा

कैसे मुमकिन तुझसे बचना, चारों खूँट ऐ बहती हवा
सहरा-सहरा संगत तेरी, रस्ता-रस्ता साथ तेरा

उड़ते जाते वक़्त बता अनजाने पन का भेद है क्या
मेरी तबीअत ज्यों की त्यों और बदला-बदला साथ तेरा

ऐ जंगल की बेमानी चुप, शहरों के दीवाने शोर
बेकार गिला तन्हाई का ख़ुद हमने छोड़ा साथ तेरा

इक रूख़ तेरा दिलकश इतना, इक रूख़ नामरग़ूब* बहुत
लेकिन मेरी आदत ठहरा, कड़ुआ-मीठा साथ तेरा

1- क़ता* --विच्छेद
2- नामरग़ूब* --अस्वीकार्य

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