(34)
कल के बाज़ार में जिसकी क़ीमत न हो
ऐसा अंदोख़्ता* क्या बचाए कोई
ख़ुद को अब इस तरह ख़र्च करता हूँ मैं
जैसे माले-गनीमत* लुटाए कोई
तेज़ आँधी सही, घुप अंधेरा सही
फिर भी अपने दरीचे खुले छोड़ दो
घर से बिछुड़ा हुआ, घर को भूला हुआ
क्या ख़बर है यहाँ आ ही जाए कोई
नर्म मख़मल-सा जब तक मैं फैला रहा
मुझको पैरों तले ख़ूब रौंदा गया
अब की शीशा हूँ राहों में बिखरा हुआ
पा-बरहना* यहाँ, अब न आए कोई
नीचे धरती की चादर सुलगती हुई
सर पे सूरज का गोला दहकता हुआ
दरमियाँ में ख़ला* कोई बादल न छत
तुम ही सोचों कहाँ सर छिपाए कोई
हर बुने-मू* से दिन-रात बहता हुआ
जून के तुंद सूरज का सैचाल-सा*
किस बुलंदी पे जाकर हवा मर गई
अब कहाँ जिस्म अपना सुखाए कोई
1- अंदोख़्ता--जमा-पूंजी
2- माले-गनीमत*--लूट का माल
3- पा-बरहना*--नंगे पाँव
4- ख़ला*--खाली जगह
5- बुने-मू*--बाल की जड़
6- सैचाल--तरलता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें