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दिन,रात से बे-वास्ता, साए से हमसाया जुदा
साँसें ये जब मुझको मिली, लम्हे से था लम्हा जुदा
टपका गई थी सब छतें पिछली झड़ी बरसात की
लेकिन हुआ अब के बरस चौखट से दरवाज़ा जुदा
बेकारो-बेमानी हुए, कल तक के सारे सिलसिले
बस्ती से हंगामें जुदा, जंगल से सन्नाटा जुदा
यों भी तो हम अक्सर मिले अपना अधूरापन लिए
उसकी तड़प उससे अलग, मुझसे मेरा जज़्बा जुदा
ऐसा भी क्या हिज्राँ की रात, आलम है इस बिखराव का
रंगों से तस्वीरें अलग, हैरत से आईना जुदा
तनहा-रवी का ग़म ही क्या, मिलते भी हम तो कब कहाँ
थी मुख़तलिफ़ अपनी रविश, दुनिया का था रस्ता जुदा
1-हिज्राँ की रात---वियोग
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