(23)
छा गया सर पे मेरे गर्द का धुँधला बादल
छा गया सर पे मेरे गर्द का धुँधला बादल
अबके सावन भी गया, मुझ पे न बरसा बादल
दीप बुझते हुए सूरज की तरफ देखते हैं
कैसी बरसात है मेरी जान! कहाँ का बादल
वो भी दिन थे कि टपकता था छतों से पहरों
अब के पल-भर भी मुँडेरों पे न ठहरा बादल
फ़र्श पर गिर के बिखरता रहा पारे की तरह
सब्ज़बाग़ो कि मेरे बाद न झूला बादल
लाख चाहा न मिली प्यार की प्यासी आग़ोश
घर की दीवार से सर फोड़ के रोया बादल
आज की शब भी जहन्नम में सुलगते ही कटी आज
की शब भी तो बोतल से न छलका बादल।
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