सोमवार, 11 जुलाई 2011

'तुम्हारा अपना'

आपने चढ़ती-ढ़लती धूप में दीवार की छाया को रुख़,आकार और दिशाएं बदलते देखा होगा आपने देखा होगा कि धूप का उतार-चढ़ाव किस प्रकार दीवार की छाया को परिवर्तित होने पर विवश कर देता है। लेकिन निश्तर ख़ानक़ाही के यहां धूप-छांव का यह खेल जीवन की वास्तविकताओं को उजागर करने वाले दर्पण की भांति सामने आता है। वे जिन्दगी की धूप-छांव के पारखी ही नहीं, उसे कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने वाले सहित्यकार भी थे।
 
(1) जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तन्हा अपना
     कौन कहता है कि दुख-दर्द हैं अपना-अपना
 
     दुश्मन-ए-जाँ ही सही, कोई शनासा* तो मिले
     बस्ती-बस्ती लिए फिरता हूं सराया अपना
 
     पुरसिशे-हाल* से ग़म और न बढ़ जाए कहीं
     हमने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना
 
     ग़ैर फिर ग़ैर है क्यों आए हमारे-नजदीक
     हम तो खुद दूर से करते हैं तमाशा अपना
 
    लड़खड़ाया हूं, जो पहले तो पुकारा है तुम्हें
    अब तो गिरता हूं तो लेता हूं सहारा अपना
 
    अब न वो मैं हूं न वो तुम, न वो रिश्ता बाकी
    यूं तो कहने को वही मैं हूं 'तुम्हारा अपना'
   
   *शनासा-परिचित
   *पुरसिशे-हाल- हाल पूछना
 
      
 
    

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