आपने चढ़ती-ढ़लती धूप में दीवार की छाया को रुख़,आकार और दिशाएं बदलते देखा होगा आपने देखा होगा कि धूप का उतार-चढ़ाव किस प्रकार दीवार की छाया को परिवर्तित होने पर विवश कर देता है। लेकिन निश्तर ख़ानक़ाही के यहां धूप-छांव का यह खेल जीवन की वास्तविकताओं को उजागर करने वाले दर्पण की भांति सामने आता है। वे जिन्दगी की धूप-छांव के पारखी ही नहीं, उसे कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने वाले सहित्यकार भी थे।
(1) जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तन्हा अपना
कौन कहता है कि दुख-दर्द हैं अपना-अपना
दुश्मन-ए-जाँ ही सही, कोई शनासा* तो मिले
बस्ती-बस्ती लिए फिरता हूं सराया अपना
पुरसिशे-हाल* से ग़म और न बढ़ जाए कहीं
हमने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना
ग़ैर फिर ग़ैर है क्यों आए हमारे-नजदीक
हम तो खुद दूर से करते हैं तमाशा अपना
लड़खड़ाया हूं, जो पहले तो पुकारा है तुम्हें
अब तो गिरता हूं तो लेता हूं सहारा अपना
अब न वो मैं हूं न वो तुम, न वो रिश्ता बाकी
यूं तो कहने को वही मैं हूं 'तुम्हारा अपना'
*शनासा-परिचित
*पुरसिशे-हाल- हाल पूछना
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